गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 2
‘न तु मां शक्रोसि द्रष्टुम्र’। ‘शक्यसे’ की जगह ‘शक्रोसि’ बोलना पसन्द करते हैं। श्रीकृष्ण को पाणिनीय व्याकरण का कुछ अभ्यास नहीं था। पाणिनि श्रीकृष्ण के बाद हुए हैं तो अभ्यास कहाँ से होगा? क्योंकि पाणिनि के सूत्रों में वासुदेव का नाम आता है, अर्जुन का भी नाम आता है। पाणिनी की अष्टाध्यायी है-जब वासुदेव और अर्जुन का नाम पाणिनी की अष्टाध्यायी में है तो वासुदेव और अर्जुन तो पहले ही हो गये। पहले हो गये तो उन्हें पाणिनी के व्याकरण का अभ्यास कैसे होगा? फिर गाँव में रहे थे तो जरूरी नहीं कि शुद्ध ही बोलें। व्याकरण का कोई अभ्यास भी नहीं था। दूसरी बात यह है कि जहाँ व्याकरण के विरुद्ध किसी शब्द का प्रयोग आता है, वहाँ ऐसा मानते हैं कि पहले जो लोग थे उनके वेदों का बहुत अधिक अभ्यास होता था। वेदों का बहुत अधिक अभ्यास होने के कारण वेदों में जैसा शब्दों का संस्कार होता है वैसा ही बुद्धि में आरूढ् हो जाता था और जिह्वा पर वे रूप इस प्रकार बैठ जाते थे कि किसी व्याकरण के संस्कार के बिना ही वैदिक संस्कार से संस्कृत होकर वैसे शब्दों का प्रयोग करते थे। वे अपशब्द नहीं हैं बल्कि पवित्र होते हैं। न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। अर्जुन, तुम अपनी इन्हीं आँखों से मुझे देखना चाहते हो तो नहीं देख सकते। संसार में जितने रूप हैं-जो प्रयोगशाला में दिखाई पड़ते हैं वे क्या अपनी आँख से देख सकते हैं? दूध में जो कीटाणु हैं वे आँख से दीखते हैं? आपके दही में कितने कीटाणु हैं, यह क्या आप देख सकते हैं? आँख की शक्ति तो बहुत सीमित है। देश में भी सीमित है। थोड़ी दूर तक की चीज ही दिखती है और काल में तो इतनी सीमित है कि भूत और भविष्य को आँख देख ही नहीं पाती है। और वस्तु में इतनी सीमित है कि इससे कुछ बड़ा हो तो नहीं देख सकेगी और इससे छोटा हो तब भी नहीं देख सकती। अब इस आँख से कोई विराट भगवान को देखना चाहे तो कैसे सम्भव होगा? यह विराट जो विविध रूपों में विराजमान है उसको आपकी यह आँख कैसे देख सकेगी? अतः प्रभु बोले ठीक है-यही आँख जिससे तुम देखते रहे हो- यह मेरी माँ है यह मेरी पिता जी हैं-ये मेरे शत्रु और मित्र हैं। ये काले हैं, गोरे हैं, लाल हैं, ये लम्बे हैं, नाटे हैं। ‘अनेनेव स्वचक्षुषा।’ तुम्हें मैं दिव्य चक्षु देता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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