गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 1
वास्तव में ईश्वर कहीं दूर नहीं। आप बैठे हैं और आपकी बुद्धि विवेक कर रही है। बुद्धि के पीछे बैठकर उसका संचालन कर रहा है परमेश्वर। अन्तः प्रविष्टः शास्ता जनानाम्। आप ईश्वर को देखिये, ईश्वर को पहचानिये। आप साँस ले रहे हैं पर साँस को शक्ति देने वाला जो वायुतत्त्व है, वह बाहर और भीतर परिपूर्ण है। समष्टि के साथ सम्बन्ध रखे बिना व्यक्ति का जीवन ही नहीं रहता। हम, जो बुद्धि के सामने हैं, उसको तो देखते हैं परन्तु जो बुद्धि के पीछे हैं उसको नहीं देख पातेः मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च जिससे स्मृति होती है, जिससे ज्ञान होता है, जिससे अपोहन होता है; उसे हम नहीं देख पाते-यद्यपि वह है हमारे और हमारी बुद्धि के बीच में ही, वह अन्तर्यामी बनकर बैठा हैः धियो यो नः प्रयोदयात्।[1] यह गायत्री का मन्त्र रोज जप करने वाले भी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि हमारी बुद्धि-वृत्ति की प्रेरणा वही दे रहा है। अतः अपनी बुद्धि को जरा उसके प्रेरक की ओर उन्मुख कर दीजिये। तब आप और प्रेरक दोनों एक हो जायेंगे। जब तक बुद्धि विषयों को देखती है तब तक वह विषयाकार होती रहती है और जहाँ बुद्धि का मुँह ईश्वर की ओर हुआ, वहाँ ईश्वर की गोद में बुद्धि हो गयी और हमारी गोद में ईश्वर और बुद्धि दोनों हो गये। ईश्वर को आप नहीं भी मान सकते, और मान भी सकते हैं। परन्तु अपने आपको न मानने का कोई कारण आपके पास नहीं, किसी भी अवस्था में आप आत्म-सत्ता को अस्वीकार नहीं कर सकते। ईश्वर ने कहा: भाई मुझे मानो चाहे न मानो। कोई भी ऐसा दबाव भला क्यों डालेगा, कि हमको तो मानना ही पड़ेगा। ईश्वर ने भी अपनी तरफ से कोई दबाव नहीं डाला कि हमको मानो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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