गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 6
यह जो सृष्टि का आदि, मध्य, अन्त है, यह कहाँ है? अद्भुत है। कोई सातवें आसमान में कोई रस्सी होगी और उससे हम लोग बँधे होंगे! अच्छा; रस्सी सातवें आसमान में नहीं होगी तो नीचे कहीं होगी? अगाड़ी-पिछाड़ी कुछ लगी होगी। हम एक बार स्वामी ब्रह्मप्रकाश जी महाराज के यहाँ गये-उत्तरकाशी में-एक महीना रहे-जब मैंने कहा कि अब लौट जाने का मन है तो बोले-क्यों लौटते हो? स्वामी तपोवनजी ने कहा-तुम क्यों लौटकर जाते हो? अब यहीं रहो। वे लोग माण्डूक्य का प्रवचन सुनते थे। स्वामी तपोवन जी, ब्रह्मप्रकाश जी, देवीगिरी जी सबलोग इकट्ठे होते थे। वे बोले-देखो भाई, पीछे कुछ छोड़कर आये हो, तब तो लौटना ही पड़ेगा; क्योंकि घोड़े को बाँधते हैं तो एक रस्सी आगे लगती है और एक उसके पिछले पाँव में बँधी रहती है। तो अगली को तोड़ भी दे लेकिन पिछली को नहीं तोड़ पाता है। यदि तुम्हारी पिछाड़ी लगी हुई हो तब तो लौट जाओ और नहीं तो यहाँ से जाने का क्या काम है? देखो, आनन्द से सत्संग करते हैं। हम जो बँधे हैं-कहाँ बँधे हुए हैं? ऊपर से कि नीचे से-रस्सी तो कहीं दिखती नहीं-अगल से, बगल से-इस सृष्टि में जो बन्धन है वह कहाँ से हैं? ये केवल मानसिक बन्धन हैं। नहीं तो हिन्दू को कब किसने कहा था कि तुम मनुष्य नहीं हो, मुसलमान को कब किसने कहा था कि तुम मनुष्य नहीं हो। मनुष्य रहते हुए ही वह अपनी मनुष्यता को भूलकर हिन्दू, मुसलमान को कब किसने कहा था कि तुम मनुष्य नहीं हो। मनुष्य रहते हुए ही वह अपनी मनुष्यता को भूलकर हिन्दू, मुसलमान बन गया। मनुष्यता रहते हुए ही शैव और शाक्त बन गया। मनुष्यता रहते हुए ही शिया, सुन्नी बन गया। और मनुष्यता रहते हुए ही कैथोलिक और प्रोस्टेटंट बन गया। किसने मनुष्य को यह सब बनाया था? यही भ्रम उत्पन्न हो गया-कैसे? जैसे गधे को बन्धन का भ्रम पैदा होता है, वैसा ही यह बन्धन है। हम ब्राह्मण और तू अन्त्यज, दोनों मनुष्य हैं। मनुष्यता के रहते ही एक में अन्त्यजपनने का बन्धन हो गया। एक में ब्राह्मणपने का बन्धन हो गया। मनुष्यता कहाँ चली गयी? एक ब्राह्मण को मनुष्य होने के लिए क्या करना पड़ेगा? कौन-सा साधन? छूने-न-छूने की बात जुदा है-जब मासिक धर्म होता था तब अपनी माँ को नहीं छूते थे। अपनी बहन को, अपनी पत्नी को, नहीं छूते थे। तो क्या हम उससे घृणा करते थे? घृणा नहीं करते थे। जैसे गधे का बन्धन पहले नहीं था बाद में झूठमूठ उसके मन में बैठा दिया गया। और जैसे बन्धन नहीं था, खोल दिया गया। इसी प्रकार हम लोगों ने अपने मन में, सुनके-सुनाके, बोलके अपने जीवन में बन्धन समेटकर रख दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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