गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 6
आओ सुनो आदि, मध्य, अन्त में कौन है? अब सृष्टि का विचार हुआ तब कहा गया ‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा’।[1] जो आदि, मध्य, अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी नहीं है। एक कहानी वेदान्ती लोग कहते हैं-एक कुम्हार गधा लेकर माटी लाने को जाता था। रोज-रोज जाता। दोपहर को गधों को बाँध दिया करता था और खुद माटी खोदता था-खाता था, पीता था-लौटते समय गधों पर लादकर ले आता था। बीच में गधों को बाँध देता था और चलते समय गधों को खोल देता था। अब बन्धन के पहले गधे खुले होते थे। और अन्त में भी खुले होते थे। बन्धन तो बीच में आता था। भाग न जायं इसके लिए बाँध दिया और माटी लेकर घर चलना है, इसके लिए खोल दिया। एक दिन एक रस्सी कम हो गयी। एक गधा खुला रह गया। अब वह कान पकड़कर विचारा खड़ा, क्योंकि गधे के बारे में आपको मालूम होगा कि वह एक बार जब घास चरने जंगल में जाता है तो लौटकर स्वयं अपने मालिक के घर में नहीं आता। उसको लाना ही पड़ता है-डण्डा मारकर, कान पकड़कर लाना पड़ता है, खदेड़कर लाना पड़ता है तब वह आता है। एक गधे की रस्सी नहीं-कैसे बाँधे? फ़िक्र में पड़ा था; इतने में कोई सज्जन आ गये। उन्होंने कहा भाई उसे जहाँ रोज बाँधते हो वहाँ ले जाकर झूठ-मूठ हाथ से बाँध दे। बाँध दे। बाँध दिया, गधा खड़ा हो गया। उसको तो यह लगा कि हम बंध गये। उसने खाया, पीया-मिट्टी लाद दी-चलने के लिए और सब गधों को खोल दिया-उसकी नहीं खोली। उसको डण्डा मारे कि चल, तो चले नहीं। वहीं-का-वहीं बंधा समझे। फिर वह सज्जन मिले। उन्होंने कहा-जैसे झूठमूठ बाँधा है, वैसे झूठमूठ खोल दे। जाकर हाथ अपना घुमाया और खोल दिया। फिर चलने लगा। देखो बन्धन उसके पाँव में पहले भी नहीं था और बीच में भी नहीं था और बाद में भी नहीं था, लेकिन गधे के मन में जो भ्रम हो गया कि मैं बंधा हुआ हूँ-उसी से वह बन्धन में है। यह जो सृष्टि का, संसार का बन्धन है यह बन्धन की उत्पत्ति के पहले नहीं था और बन्धन के बाद नहीं है। यह तो बीच में है। अब हम अपने लोगों को क्या बोलें? ईश्वर के घर से आये, ईश्वर के भेजे हुए आये और लौटने की तो सुध है नहीं। आप लोग दृष्टान्त को अपने ऊपर मत घटावें। लेकिन ऐसा लगता है कि जब तक कान पकड़कर कोई ले न जाय, जब तक कोई डण्डा न मारे, जब तक कोई खदेड़े नहीं, इस जंगल में भटकते रहते हैं। दुनियाँ में जब कोई खदेड़ता है, डण्डा मारता है, कान पकड़कर ले जाता है, सभी लोग ईश्वर की ओर चलना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माण्डूक्यकारिका 2.6
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