गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 4
उसमें अनेक प्रकार के जो अनाचार-व्यभिचार हैं; उनकी निवृत्ति हो जाती है। कोई बात उपयोग की दृष्टि से मानी जाती है, कोई बात प्रयोजन की दृष्टि से मानी जाती है और कोई बात सत्य की दृष्टि से मानी जाती है। सत्य यह है कि हमसे अलग रहकर कोई चेतन ही नहीं रह सकता। ‘प्राधान्यतः’-प्रधान रूप से हम वर्णन करते हैं। प्रधान का मतलग है-जैसे राजधानी में ‘धानी’-जैसे मसिधानी-जिसमें स्याही रखी जाती है। धानी माने ‘धीयते आस्याम्’; प्रधानम्। ‘प्रकर्षेण धीयते अस्याम्’-छोटी-सी बात में बहुत बड़ी बात रख दी जाय। हमको प्रधान का अर्थ ऐसे समझाते थे-एक के घर में दस पतीली-सबसे छोटी पतीली को उससे बड़ी में रखा और उसको उससे बड़ी में रखा, और उसको उससे बड़ी में रखा तो दस पतीली एक पतीली के पेट में आ गयीं- एक पतीली को उठाया तो दसों उठ गयीं। प्रधान उनमें कौन है? जिसके पेट में सब आ गयीं उसका नाम हो गया प्रधान? संस्कृत भाषा में शब्दों की माया ऐसी है कि उस शब्द में उसका अर्थ भरा रहता है। जिस एक के वर्णन से अनेक का वर्णन हो जाये, उस ढंग से मैं प्रधान-प्रधान विभूतियों का वर्णन करता हूँ, क्योंकि तुम कुरुश्रेष्ठ हो, श्रोता बहुत अच्छे मिले थे-कुरुश्रेष्ठ का अर्थ है कि तुम सुनकर करोगे। ‘कुरु’ माने करने वाला। ऐसे आदमी को बताकर क्या करना जो कभी करे ही नहीं। हम बतावें प्राणायाम ऐसे किया जाता है और करने वाले ने एक मिनट भी प्रणायाम नहीं किया। आसन समझने में हमारा घण्टाभर गया और उसने एक आसन भी नहीं किया। बतायी हुई बात को जो करे उसको बोलेंगे-कुरुश्रेष्ठ। कर्मशील है, जो काम करना चाहता है। अच्छा प्रधानरूप से हम तुमको बताते हैं, क्योंकि तुम करना चाहते हो। विस्तार से क्यों नहीं बताते? ‘नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे’। मेरे विस्तार का अन्त नहीं है। यदि मैं अपना विस्तार बताने लगूँ तो उसका अन्त नहीं होगा। यह आसमान धरती का कितना गुना है? आप बता सकते हैं। यह नहीं बताया जा सकता। धरती इतनी छोटी है कि आकाश के किस कोने में यह है-यह बताया नहीं जा सकता। अनिर्वचनीय होता है। दिक्तत्त्व धरती का कितना गुना है? लाखगुना, करोड़गुना-नहीं; अनन्त दिक् में पृथ्वी कहाँ है-मूलार्थरूप से यह भी नहीं बताया जा सकता। एक सेठ के घर में गये। उनके घर में विश्व का गोल नक्शा था। उसे घुमा-घुमाकर वे बता रहे थे कि यह अमेरिका है। यह यूरोप है। हम भूगोल-इतिहास नहीं जानते-पर जिसको भूगोल-इतिहास मालूम पड़ता है, उसको जानते हैं। भारत वर्ष यह है। बम्बई कहाँ है? यह बिन्दी है- बम्बई की जगह पर एक बिन्दी थी। मैंने कहा-सेठ जी आपका महल कहाँ है? विश्व के नक्शे में तो सेठ जी का महल ही नहीं था! यह जो अनन्त वस्तु, अनन्त तत्त्व है-इसमें वे चीजें जिसको हम बहुत महत्त्व देते हैं-प्रयोजन को दृष्टि भी देते हैं, अपने लिए देते हैं। अपनी जाति के लिए देते हैं, अपने धर्म के लिए देते हैं वह सब ठीक है। परन्तु तत्त्वदृष्टि से विश्व के नक्शे में सेठ जी का महल ही नहीं है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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