गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
अब जो अपनी बुद्धि को ठीक रखना चाहता है वह कैसे ठीक रखे, इसकी एक साधन कला गीता में देखिये-
ये साधन हिमालय की गुफा में जाने के लिए नहीं, आकाश में उड़ने के लिए भी नहीं; केवल बुद्धि को ठीक करने के लिए, समबुद्धि बनाने के लिए हैं। आप ध्यान दो, भगवान की वाणी में एक बात देखो। आप सबके साथ मिलते हो, परन्तु एक बात छोड़ते जा रहे हो और वही जीवन की कला है। आप दिन भर सबसे मिलते हैं, शत्रु से मिलते हैं, मित्र से मिलते हैं, व्यापार से मिलते हैं, देश-विदेश से मिलते हैं, किन्तु अपने आपसे नहीं मिलते। आपका यह एकांगी व्यवहार ही, जो आपको अपने आपसे अपने मिलने देता, आपके जीवन में विकलता लाने वाला है। योगी युंजीत सततं आत्मानं अर्थात्- योगी आपने आत्मा के साथ सतत योग करे। तो, योगी का अपना वियोग ही कहाँ हुआ है जो वह योग करे? इसका तात्पर्य यही है कि मनुष्य के पास दूसरों से अलग होकर थोड़ी देर अपने बारे में शान्तिपूर्वक सोचने-विचारने और देखने-सुनने का समय होना चाहिए। आत्मानं युंजीत का अर्थ है आत्म निरीक्षण-आत्मयोग कीजिए। इसके लिए उपनिषद् में आज्ञा है कि भगवान के नाम का उच्चारण कीजिए। सबसे अलग होकर अपने आपमें बैठिए। ऊँ - यानी प्रणव मन्त्र का लम्बा उच्चारण करते हुए जपिए। वह मन्त्र बाहर से प्रारम्भ होगा और भीतर जाकर समाप्त होगा। आप अन्तर्मुख हो जायेंगे यह एक युक्ति है। अभिप्राय यह है कि आप किसी भी तरह दूसरी चीजों को, दूसरे लोगों को देखना छोड़कर अपनी ओर देखिए। अपने साथ जुड़ जाइये। स्थिति यह है कि आप अपने को छोड़कर दूसरे के साथ जुड़ गये हैं। आत्मा अनात्मा के साथ जुड़ गया हैं, चेतन जड़ के साथ सम्बद्ध हो गया है। आनन्द दुःख के साथ और स्व पर के साथ बँध गया है। तो पहली बात यह है कि योगी अथवा योगार्थी, जो चाहता है कि उसकी बुद्धि ठीक रहे, वह थोड़ी देर तक अपने आप पर विचार करे, दूसरे पर नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.10
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