गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
तो, मनुष्य कभी-कभी वस्तु से राग-द्वेष करने लगता है। प्रत्येक वस्तु दवा होती है। प्रत्येक घास दवा होती है। प्रत्येक अक्षर मन्त्र होता है। प्रत्येक व्यक्ति में कोई योग्यता होती है। उसका ठीक-ठीक उपयोग करना चाहिए। हमने पचीस-तीस वर्ष पहले एक बहुत बड़ी प्रसिद्ध धार्मिक संस्था में एक गुण्डा नौकर देखा था। उसको वे लोग पाँच सौ रुपये प्रतिमास देते थे। उसको दूसरे गुण्ड़ों से निपटने के लिए रखा गया था। वहाँ एक मुक़दमेबाज नौकर था। वह रोज अपना बस्ता लेकर अदालत में पहुँच जाता। उसकी पहचान पुलिस वालों से थी, अदालत वालों से थी। संस्था वाले उनकी योग्यता का उपयोग करते थे। तो, आप किसी को अयोग्य क्यों समझते हैं? मनुष्य नहीं होता। वस्तु निरर्थक नहीं होती। किसी अक्षर को काटते क्यों हैं? उसका उपयोग कीजिए। जब किसी व्यक्ति का किसी वस्तु विशेष में आग्रह हो जाता है, तब मानपमान उपस्थित होता है। वह वस्तु मिले तो मान, न मिले अपमान। इसी प्रकार किसी-किसी को भोग में आग्रह हो जाता है। आये दिन रसोइये पर नाराज होते रहते हैं। आज उड़द की दाल क्यों नहीं बनी? यह नहीं कि उनकी जीभ को उड़द की दाल की जो आदत पड़ गयी है, उसको रोकें। अरे बाबा ! एक दिन नहीं मिली तो क्या हो गया? मैंने एक घर में देखा कि पन्द्रह रसोइये थे। पूछा कि इतने रसोइया क्यों? तो बोले कि महाराज, घर में पन्द्रह बच्चे हैं और वे पन्द्रह तरह का भोजन बनाने को कहते हैं। एक रसोइया तो केवल दूध के लिए है। बच्चे अपनी-अपनी रुचि का भोजन नहीं पाते तो थाली उठाकर पटक देते हैं और रसोइये पर बरस पड़ते हैं। यह है भोजन के आग्रह का परिणाम। असल में भोग का जो आग्रह है वह दुःखदायी होता है। श्रृंगार में मैच करने वाली चीजों का जो आग्रह है वह यदि पूरा न हो तो और भी दुःख देता है। अभी दो-तीन महीने पहले की बात है। मैं ऋषिकेश के समीप गंगालहरी में ठहरा था तो वहाँ एक सज्जन आये उनके साथ उनकी आठ-दस लड़की भी आयी थी। वह बोली स्वामीजी ! हमारी माँ अंग्रेजी ढंग के बाल नहीं रखने देतीं। इसलिए बड़े-बड़े बाल रखने पड़ते है। और साथी लड़कियाँ पकडकर खींच लेती हैं। बार-बार कंघी करनी पड़ती है। इनकी सेवा करनी पड़ती है। आप इनको कह दीजिए कि यह मुझे बाल कटवाने की स्वीकृति दे दें। अब मैं किसी को ब्रह्मज्ञान की बात सुनाऊँ, योग और भक्ति की चर्चा सुनाऊँ या बाल रखने की पद्धति बताऊँ? मुझे कहना पड़ा कि अच्छा तुम कटवा लेना। बोली- नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा, आप लिखकर दो, मै अपनी माँ को दिखाऊँगी। तो लिखकर देना पड़ा उसको। यह है श्रृंगार का आग्रह। इसी तरह कपड़े का आग्रह होता है। लोग इसमें अपना समझते हैं। लेकिन इसमें मान नहीं है। मान करना माने अपने को सीमित बना देना, अपनी एक नाप बना देना, एक तौल बना देना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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