गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
तो यदि आपकी ज़रूरतें इतनी बढ़ गयी हैं कि आमदनी से पूरी नहीं होतीं और अपनी आमदनी आप बढ़ा नहीं सकते तो खर्च घटा दीजिये। उसके लिए दुःखी होने का तो कारण नहीं। क्या आपसे कम साधन वाले लोग दुनिया में नहीं रहते ? जिनके पास आप जैसा मकान नहीं, मोटर नहीं, वस्त्र नहीं, खाना नहीं, पीना नहीं, वे लोग दुनिया में जिन्दा नहीं रहते? उनके घर में क्या शादी नहीं होती? उनके घर में क्या बेटा नहीं होता? मन को काबू में रखो। ‘सर्व सुखमयं जगत्’- इस दुनिया में सुख ही सुख है। गर्मी आयेगी, जायेगी। ठण्डी आयेगी, जायेगी। सुख-दुःख आयेंगे, जायेंगे। हमने ऐसे कितने ही दिन देखे हैं। हमारे बाबा बताते थे कि गाँव में पहले धान पैदा नहीं होता था। इसलिए जिस दिन घर में भात बनता, उस दिन बच्चे ताली बजा-बजाकर नाचते थे कि आज भात खाने को मिलेगा। अब तो पहले जिन खेतों में गेहूँ पैदा होता था, वहाँ धान पैदा होने लगा। चावल-ही-चावल होता है, समय बदल गया। हमारे पितामह के समय में एक रुपये का एक मन गेहूँ मिलता था। अब समय बदल जाने पर एक रुपये का सेर भर मिलता है। तो जैसे-जैसे समय बदलता है उसके अनुसार रहना पड़ता है। मन को काबू में रखो, वह समय के साथ स्वयं जुड़ जायेगा। यदि ऐसा नहीं करोगे, तो जब समय पीछे जायेगा तब मन को भी पीछे जाना पड़ेगा और वह दुःख पायेगा। अब मानापमानयोः प्रशान्तस्य के द्वारा भगवान बता रहे हैं कि जीवन में कभी मान मिलता है, कभी अपमान मिलता है। इन दोनों में मनुष्य का मन शान्त रहना चाहिए। हमारे मनु जी केवल हिन्दू-धर्म के ही व्याख्याता नहीं, सम्पूर्ण मानव समाज के धर्म के व्याख्याता हैं। मनु ने जो कुछ भी कहा है, वह औषध है- यत्किंच मनु वदत तद् भेषजम्। वे कहते हैं कि मान में लाभ है, यह सोचना गलत है और अपमान में हानि है, यह सोचना भी गलत है। उनका पूरा श्लोक इस प्रकार है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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