गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
हमारे अन्तः करण में बुद्धि की उपाधि से बैठने हैं भगवान् श्रीकृष्ण- बुद्धिं तु सारथिं विद्धि। हमारे हृदय में उचित-अनुचित का निर्णय करने के लिए श्रीकृष्ण विराजमान होते हैं और उनकी बात सुनने और मानने के लिए हमारा ही मन बैठता है। मन में जो भगवत्प्रकाश है, चैतन्य है; उसका नाम अर्जुन है और बुद्धि में जो भगवत्प्रकाश है, चैतन्य है; उसका नाम श्रीकृष्ण है। प्रत्येक हृदय में श्रीकृष्ण और अर्जुन का निवास है और वे सबको मार्ग दर्शन देते हैं। पर उस मार्ग दर्शन को दुर्योधन नहीं सुन पाता, अर्जुन सुन पाता है। अर्जुन शब्द का अर्थ नीलकण्ठ ने, महाभारत के उद्योगपर्व में ऋजुत्वात् अर्जुनः किया है। अर्जुन ऋजु है, सरल है। जो दाव पेंच से बात करता है वह अर्जुन नहीं होगा। व्यवहार में दाव पेंच नहीं चाहिए। सरलता चाहिए। सीधे चलो। टेढ़े मन चलो। वामपन्थ से मन चलो, सीधे चलो। किसी को भूलभुलैया में डालना या स्वयं पड़ जाना आत्मा के सहज स्वभाव के विपरीत है। अब मैं आपका ध्यान एक सहज बात पर आकर्षित करता हूँ। एकदम सहज बात है, टेढ़ी नहीं। आपका जीवन दो तत्त्वों से बना दीखता है। वे कौन-से दो तत्त्व हैं? कर्म और ज्ञान हैं। आँख ज्ञान और पाँव कर्म है। आप आँख से देखते हैं और पाँव से चलते हैं। इसी तरह ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान हैं और कर्मेन्द्रियाँ कर्म हैं। प्रत्येक मनुष्य का जीवन बिना दाव पेंच के सहज भाव से दो तत्त्वों का प्रकाश है, अभिव्यक्ति है। आपके शरीर में दो तत्त्व ज़ाहिर हैं- दो तत्त्वों का इज़हार है। आप समझते हैं और करते हैं, करते हैं, और समझते हैं, करते-करते समझ बढ़ जाती है और समझते-समझते उसके अनुसार करने लगते हैं। जीवन में ज्ञान और कर्म का सुगम है। इसको संस्कृत भाषा में समुच्य बोलते हैं। बिना ज्ञान के अन्धा है। बिना कर्म के ज्ञान पंगु है- लँगड़ है। सांख्यदर्शन में एक दृष्टान्त है। इसे ‘अन्ध-पंगु-न्याय’ बोलते हैं एक था अन्धा। वह जाना चाहता था बदरीनाथ पर रास्ता कौन बतावे ? एक था लँगड़ा। वह भी जाना चाहता था बदरीनाथ, पर वह चल नही सकता था। तब दोनों ने आपसे में मित्रता जोड़ ली। अन्धे के कन्धे पर लँगड़ा बैठ गया। लँगड़ा रास्ता बताता जाये क्योंकि उसके आँख थीं और अन्धा चलता जाये क्योंकि उसके पाँव थे। दोनों बदरीनाथ पहुँच गये। हमारे जीवन में कर्म अन्धा होता है। एक तो हम बिना सोचे-समझे, चाहे जो कुछ करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। दूसरे, हम सोचते-समझते तो बहुत हैं, परन्तु करते कुछ नहीं। जब इन दोनो का मेल मिलता है। तब हमारा जीवन ठीक-ठीक चलता है। हमारे जीवन की गाड़ी के ये दो पहिये हैं योगवासिष्ठ के प्रारम्भ में ही यह प्रश्न आया है। आसमान में चिड़िया तभी उड़ती है जब उसके दोनों ओर पंख हों। एक पंख से चिड़िया उड़ नहीं सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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