गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 12
भक्ति का स्वरूप
संस्कृत में भक्ति शब्द के मुख्य रूप से तीन अर्थ होते है- एक तो ‘भजनं भक्तिः’- प्रेमपूर्वक भगवान के भजन का नाम भक्ति है। दूसरा ‘भंजनं भक्तिः’ भंजो आमर्दने धातु से भक्ति शब्द बनता है। दुनिया में जो आसक्ति है उसको भंजन करने तोड़ देने का नाम भक्ति है। और, तीसरा है, ‘भागो भक्तिः’-अपने को ईश्वर के भाग के रूप में अनुभव करना कि हम ईश्वर के अंश है- इसका नाम भक्ति है। शण्डिल्य ने भक्ति का यह लक्षण किया है कि ईश्वर के प्रति परम अनुराग का नाम भक्ति है। नारद जी ने भक्ति का लक्षण दो प्रकार से किया है- सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च। वे कहते हैं कि भक्ति परमात्मा में परम-स्वरूप है। कहीं कस्मै पाठ है तो कहीं अस्मिन् पाठ है। अस्मिन् का अर्थ यह है कि जो भगवान हमको दीख रहा है उसमें परम प्रेम की जिसका रूप है वह भक्ति है। जो भक्ति का रूप है परम प्रेम और वह दीखने वाले भगवान में होता है। आँख से दीख रहा हो, चाहे मन में दीख रहा हो, दीखना आवश्यक है। जो बिल्कुल दृश्य नहीं, मन से जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, बुद्धि जिसको सोच भी नहीं सकती, उससे प्रेम नहीं होता। प्रेम तो उससे होता है जो हमारी आँखों के सामने, हमारे मन के सामने प्रकट हो! प्रेम के लिए तो आँखों के सामने एक सीधा-सादा सच्चा विषय चाहिए। इसलिए नारद जी ने भक्ति का लक्षण करते हुए कहा कि हमारे सामने जो परमेश्वर का रूप है इसमें परम प्रेम होगा। यह है साधन भक्ति और दूसरी है- ‘अमृतस्वरूपा च’- भक्ति का स्वरूप है अमृत और रूप है प्रेम। यह फलरूपा भक्ति है। जब भक्ति के सम्बन्ध में हम चर्चा करते हैं तो पहली बात आती है श्रवण की। दुनिया में कोई अभीष्ट[1] चलते-फिरते दीख रहा हों तो उसको देखकर भी भक्ति कर सकते हैं। कभी उसका स्पर्श हो जाये तो गद्गद् हो जायेंगे, उससे प्रेम हो जायेगा। प्रेम तो जिनको आँख नहीं, उनको भी होता ही है। पर वह प्रेमास्पद का स्पर्श करके या उसकी मीठी-मीठी आवाज सुनकर होता है। कोई सुगन्ध सूँघने अथवा कोई स्वाद चखने पर भी प्रेम हो जाता है। प्रेम केवल आँख की अपेक्षा नहीं करता। केवल आँख वाले ही प्यार करते हों, यह कोई नियम या मर्यादा नहीं। बिना आँख वाले भी प्रेम तो कर ही सकते हैं। परन्तु ईश्वर से प्रेम करना हो तो वह न चाम से छूआ जा रहा है, न जीभ से चखा जा रहा है, न नाक से सूँघा जा रहा है। फिर ईश्वर से प्रेम कैसे हो? ईश्वर को ‘यह’ बनाने के लिए श्रवण की आवश्यकता होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इष्ट
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज