गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
हमने देखा, एक सज्जन को गीता इतनी कण्ठस्थ थी कि वे ‘धर्मक्षेत्र’ से प्रारम्भ करें और ‘मतिर्मम’ तक बिना रुके बोल जाँय। कभी अन्त से शुरु करें तो प्रारम्भ तक उलटी बोल जाँय। गीता में कौन शब्द कितनी बार आया और कहाँ-कहाँ आया-यह भी उनको याद था। लेकिन जब उनकी मृत्यु का समय आया तो उनका सारा अभ्यास छूट गया। वे श्लोक बोलना चाहते थे तो उनकी जीभ काम नहीं देती थी। उनकी स्मृति इतनी क्षीण हो गयी कि पूरा श्लोक नहीं बोल पाते थे। कहने का मतलब यह है कि यदि हम उच्चारण अथवा स्मृति के अभ्यास से चाहें कि कोई चीज अक्षय हो जाये तो वह नहीं होगी। जो अक्षय है, वही अक्षय रहेगा और अक्षय केवल परमात्मा है। इसलिए- सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्रामतीन्द्रियम् ।[1] सुख ऐसा होना चाहिए कि उनका कभी अन्त न हो। ‘आत्यन्तिकं’ का अर्थ है जो अन्त का अतिक्रमण कर जाये। अर्थात् ऐसा सुख हो, जो काल से अपरिच्छिन्न हो, अविनाशी हो। फिर ‘बुद्धिग्राह्यम्’ हो अर्थात् जो ज्ञान मात्र से मिलता हो और जिसके लिए कहीं जाना-आना अथवा कुछ पाना आवश्यक न हो। जो सुख ज्ञान मात्र से मिलेगा वह तमोगुणी नहीं होगा। तीसरा सुख है ‘अतीन्द्रियम्’ अर्थात वह सुख जो विषयों और इन्द्रियों के संयोग से न मिलता हो, अपने आप मिलता हो। तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम् ।[2] हम ऐसे सुखी हो जाँय कि संसार को कोई भी दुःख हमारे साथ चिपके नहीं। हमको सुख के लिए मँगता न बनना पड़े। लोग कहते हैं ‘हमारा नियम है हम किसी से माँगते नहीं, हम मँगते थोड़े ही हैं, भिखारी थोड़े ही हैं।’ भिखारियों के प्रति लोगों की बड़ी ग्लानि होती है, बड़ी घृणा होती है। परन्तु आप विचार कीजिये हमारी इन्द्रियों की क्या स्थिति है? हमारे मन की क्या दशा है? क्या हमारे मन और इन्द्रिय दूसरों से सुख की भीख नहीं माँगते? तो हमें ऐसा सुख चाहिए जो अतीन्द्रिय हो, बुद्धिग्राह्य हो और आत्यन्तिक हो। ऐसा जो रजोगुण, तमोगुण, सत्त्वगुण से रहित विलक्षण आत्मसुख है, ब्रह्मसुख है, वही अक्षय सुख है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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