गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
युद्ध भूमि में कही। चारों तरफ जोर से नगाड़े बज रहे थे, तलवारों की खनखनाहट हो रही थी, सब लोग उद्विग्न थे। उस समय अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह कहा कि मेरी तबियत तो ढीली होती जाती है। मुझे कुछ सूझता नहीं कि मैं क्या करूँ? ऐसे स्थान पर, ऐसे भीड़-भड़क्के में, ऐसे शोर शराबे में भगवान ने जब अर्जुन को उपदेश दिया तब उसके बाद अन्त में अर्जुन यह कहा कि ‘अब मेरा मोह नष्ट हो गया है। अब मुझे स्मृति आ गयी है, अब मैं- ‘स्थितोस्मि’ स्वस्थ हूँ, मेरी तबियत ठीक हो गयी है, आपने जो कहा उसे मैं करूँगा।’ इससे आप यह समझिये कि शान्ति हिमालय की कन्दराओं में मिले- ऐसी बात नहीं। शान्ति तो कलकत्ते के भीड़-भड़क्के में, बाज़ारों में भी मिल सकती है। वही शान्ति कायम रहेगी। हिमालय की कन्दराओं में किसी को जो शान्ति मिलती है, उसमें तो कलकत्ता आने पर विघ्न आ जाता है। तो स्वामी जी महाराज ने कलकत्ते में उपदेश देकर आपको यह बताया कि भाइयों, अपना कर्तव्य-कर्म करते जाओ- शुद्ध भाव से, लोगों की सेवा के लिए, लोगों के हित के लिए और कामना को छोड़कर। क्योंकि गीता में जो सबसे बड़े दुश्मन बतलाये गये है, वे काम एवं क्रोध एष।’ तो काम और क्रोध ये दो आपके दुश्मन हैं। कामना पूरी नहीं होती तब क्रोध आता है। इनको छोड़ो। यह जान लो कि ये तुम्हारे दुश्मन हैं। स्वामी जी महाराज ने आपको कहीं विस्तारपूर्वक और कहीं संक्षेप में यह बताया है कि आप अपना काम करते जाओ। कलकत्ते के भीड़-भड़क्के में भी करते जाओ। यहीं आपको शान्ति मिलेगी। इसी को सन्तों ने सीधी भाषा में कहा है कि -‘काहे रे बन खोजन जाये।’ भगवान को खोजने वन में क्यों जाते हो? वह तुम्हारे भीतर ही तो है। उसे भीतर ही खोजो। यह बात सही है। आप जब कोई काम करते हो तथा जब काम में लवलीन हो जाते हो और आपके पास आकर कोई आदमी खड़ा हो जाता है तो आपको पता भी नहीं चलता कि कोई आया है। इसी तरह जो भगवान में लग्न होकर काम करता है उसको इस बात की विस्मृति हो जाती है कि कलकत्ते में अशान्ति भी है। यही सब स्वामीजी महाराज ने बताया है। हम इनके बड़े अनुगृहीत हैं। मेरा ख्याल है कि जैसे रोगी को दवा की जरूरत होती है वैसे ही जो व्यवसायी-समाज कलकत्ते में रहता है, उसको ऐसे प्रवचनों की अत्यन्त आवश्यकता है। और, जैसा कि स्वामी जी ने आज कहा, केवल गीता पढ़ने मात्र से आपकी समाधि नहीं लग सकती, गीता तो आचरण के लिए है। गीता में पुनरुक्तियाँ काफी हैं और वह जान-बूझकर की गयी है। क्योंकि बार-बार घिस-घिसकर यह बताना है कि भाई, कर्म करो- कामना छोड़कर कर्म करो और वह भगवान को अर्पण कर दो। इन्हीं बातों को कई जगह अलग-अलग तरह से बताया गया है। उसको हेतु यही है कि आप उसको पूरी तरह से समझो और समझकर उसपर अमल करो। तभी आपको लाभ होगा, नहीं तो लाभ नहीं होगा। अन्त में फिर अपने परिवार और श्रोताओं की तरफ से स्वामी जी महाराज के प्रति अनेक कृतज्ञताएँ प्रकट करता हूँ कि उन्होंने यहाँ आकर हम सबा लोगों का कल्याण किया और प्रवचन देकर हमारा उपकार किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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