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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 1'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 1'''</div> | ||
− | जो आसन बाँधकर, आँख बन्द करके, साँस रोककर बैठ जाये वह योगी है और सबसे श्रेष्ठ है। इसी प्राकर जो निरग्नि है, रोटी बनाकर नहीं खाता, | + | जो आसन बाँधकर, आँख बन्द करके, साँस रोककर बैठ जाये वह योगी है और सबसे श्रेष्ठ है। इसी प्राकर जो निरग्नि है, रोटी बनाकर नहीं खाता, अग्नि सम्बन्ध का परित्याग कर चुका है वह संन्यासी है और वह भी सबसे श्रेष्ठ है। उपनिषदों में अग्नि शब्द का अर्थ स्त्री है- '''यौषावावगौतमाग्नि''' छान्दोग्योपनिषद् में स्त्री ही अग्नि है। जो स्त्री से सम्बन्ध त्याग करके गृहस्थाश्रम का भोग विलास छोड़ देता है। उसको बोलते हैं निरग्नि। तो इस मान्यता को कि गृहस्थाश्रम छोड़कर निरग्नि हो जाने वाले संन्यासी बाबा बौर निष्क्रिय हो जाने वाली योगी बहुत अच्छे हैं, [[श्रीकृष्ण|श्रीकृष्ण भगवान]] स्वीकार नहीं करते। यह क्रान्ति है, इन्कलाब है श्रीकृष्ण का। वे कहते हैं कि नहीं; संन्यासी बाबा होने से, स्त्री मात्र का परित्याग करने से अथवा केवल आसन बाँधकर, शरीर स्थिरकर योगी होने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। बड़ा होने के लिए गेरुआ कपड़ा पहनना या आसन साध लेना पर्याप्त नहीं। तब क्या करना चाहिए? देखों, हम एक ऐसा आदमी बताते हैं, जिसमें संन्यास भी है और योग भी है। |
वह आसन बाँधकर बैठा हुआ नहीं, काम कर रहा है। वह पत्नीत्यागी भी नहीं, गृहस्थाश्रम में है। अपने सारे कर्तव्य कर्मों को पूरा करता है, इसलिए अक्रिय नहीं है। वह कर्मत्यागी नहीं, परन्तु योगी है; भार्यात्यागी नहीं, परन्तु संन्यासी है। अब प्रश्न उठा कि ऐसी क्या विशेषता है जो गृहस्थाश्रम त्याग किये बिना संन्यासी, कर्मत्याग किये बिना योगी हो गया? तो बोले कि वह बृद्धि योगी है उसमें बुद्धि है। विशेषता ही सर्वोपरि विशेषता है। पत्थर जड़ वस्तु है एक जगह पड़ा रहता है, कोई काम नहीं करता। तो उसमें क्या विशेषता है? विशेषता तो तब है, जब वह अपने कर्तव्य कर्म को ठीक ढंग से करे। यः कर्म करोति से योगी- जो कर्म करता है, वह योगी है। ठीक है; किन्तु भाई कर्म करते का कोई तरीका, कोई मर्यादा भी तो होनी चाहिए। उसके लिए दो मर्यादाएँ बना दी। | वह आसन बाँधकर बैठा हुआ नहीं, काम कर रहा है। वह पत्नीत्यागी भी नहीं, गृहस्थाश्रम में है। अपने सारे कर्तव्य कर्मों को पूरा करता है, इसलिए अक्रिय नहीं है। वह कर्मत्यागी नहीं, परन्तु योगी है; भार्यात्यागी नहीं, परन्तु संन्यासी है। अब प्रश्न उठा कि ऐसी क्या विशेषता है जो गृहस्थाश्रम त्याग किये बिना संन्यासी, कर्मत्याग किये बिना योगी हो गया? तो बोले कि वह बृद्धि योगी है उसमें बुद्धि है। विशेषता ही सर्वोपरि विशेषता है। पत्थर जड़ वस्तु है एक जगह पड़ा रहता है, कोई काम नहीं करता। तो उसमें क्या विशेषता है? विशेषता तो तब है, जब वह अपने कर्तव्य कर्म को ठीक ढंग से करे। यः कर्म करोति से योगी- जो कर्म करता है, वह योगी है। ठीक है; किन्तु भाई कर्म करते का कोई तरीका, कोई मर्यादा भी तो होनी चाहिए। उसके लिए दो मर्यादाएँ बना दी। | ||
− | वह यह कि कार्य कर्म करोति। पहली बात यह कि जो अपना कर्तव्य कर्म है, वही करे सब कर्म नहीं कर्म तो चिड़िया भी करती। कर्तव्य में दो बातें है- एक तो | + | वह यह कि कार्य कर्म करोति। पहली बात यह कि जो अपना कर्तव्य कर्म है, वही करे सब कर्म नहीं कर्म तो चिड़िया भी करती। कर्तव्य में दो बातें है- एक तो निषिद्ध का त्याग और दूसरे विहित का अनुष्ठान। अनुशासन के अनुसार कर्म करना चाहिए। अनुशासन माने शास्त्र का अनुशासन, गुरु का अनुशासन, ईश्वर का अनुशासन, परिवार का अनुशासन, समाज का अनुशासन। वासना के वेग में अनुशासन का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। कार्य का अर्थ है कि जो कर्तव्य हैं, उन्हें करो और अकर्तव्य का परित्याग कर दो। अब देखिये, काम करता हुआ योगी अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 345]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 345]] | ||
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15:36, 22 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1
जो आसन बाँधकर, आँख बन्द करके, साँस रोककर बैठ जाये वह योगी है और सबसे श्रेष्ठ है। इसी प्राकर जो निरग्नि है, रोटी बनाकर नहीं खाता, अग्नि सम्बन्ध का परित्याग कर चुका है वह संन्यासी है और वह भी सबसे श्रेष्ठ है। उपनिषदों में अग्नि शब्द का अर्थ स्त्री है- यौषावावगौतमाग्नि छान्दोग्योपनिषद् में स्त्री ही अग्नि है। जो स्त्री से सम्बन्ध त्याग करके गृहस्थाश्रम का भोग विलास छोड़ देता है। उसको बोलते हैं निरग्नि। तो इस मान्यता को कि गृहस्थाश्रम छोड़कर निरग्नि हो जाने वाले संन्यासी बाबा बौर निष्क्रिय हो जाने वाली योगी बहुत अच्छे हैं, श्रीकृष्ण भगवान स्वीकार नहीं करते। यह क्रान्ति है, इन्कलाब है श्रीकृष्ण का। वे कहते हैं कि नहीं; संन्यासी बाबा होने से, स्त्री मात्र का परित्याग करने से अथवा केवल आसन बाँधकर, शरीर स्थिरकर योगी होने से कोई बड़ा नहीं हो जाता। बड़ा होने के लिए गेरुआ कपड़ा पहनना या आसन साध लेना पर्याप्त नहीं। तब क्या करना चाहिए? देखों, हम एक ऐसा आदमी बताते हैं, जिसमें संन्यास भी है और योग भी है। वह आसन बाँधकर बैठा हुआ नहीं, काम कर रहा है। वह पत्नीत्यागी भी नहीं, गृहस्थाश्रम में है। अपने सारे कर्तव्य कर्मों को पूरा करता है, इसलिए अक्रिय नहीं है। वह कर्मत्यागी नहीं, परन्तु योगी है; भार्यात्यागी नहीं, परन्तु संन्यासी है। अब प्रश्न उठा कि ऐसी क्या विशेषता है जो गृहस्थाश्रम त्याग किये बिना संन्यासी, कर्मत्याग किये बिना योगी हो गया? तो बोले कि वह बृद्धि योगी है उसमें बुद्धि है। विशेषता ही सर्वोपरि विशेषता है। पत्थर जड़ वस्तु है एक जगह पड़ा रहता है, कोई काम नहीं करता। तो उसमें क्या विशेषता है? विशेषता तो तब है, जब वह अपने कर्तव्य कर्म को ठीक ढंग से करे। यः कर्म करोति से योगी- जो कर्म करता है, वह योगी है। ठीक है; किन्तु भाई कर्म करते का कोई तरीका, कोई मर्यादा भी तो होनी चाहिए। उसके लिए दो मर्यादाएँ बना दी। वह यह कि कार्य कर्म करोति। पहली बात यह कि जो अपना कर्तव्य कर्म है, वही करे सब कर्म नहीं कर्म तो चिड़िया भी करती। कर्तव्य में दो बातें है- एक तो निषिद्ध का त्याग और दूसरे विहित का अनुष्ठान। अनुशासन के अनुसार कर्म करना चाहिए। अनुशासन माने शास्त्र का अनुशासन, गुरु का अनुशासन, ईश्वर का अनुशासन, परिवार का अनुशासन, समाज का अनुशासन। वासना के वेग में अनुशासन का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। कार्य का अर्थ है कि जो कर्तव्य हैं, उन्हें करो और अकर्तव्य का परित्याग कर दो। अब देखिये, काम करता हुआ योगी अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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