गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की नम्रता को देख चुके हैं- शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। इस कथन के द्वारा अर्जुन ने अपनी नम्रता प्रकट की है। वह नम्र हो गया। पानी-पानी हो गया। इसलिए पाँचवें अध्याय के अन्त में अर्जुन के प्रश्न न करने पर भी भगवान स्वयं बोले। जब करुणा बढ़ती है तब वह कोई अपेक्षा नहीं रखती और स्वयं उसकी धारा प्रवाहित होने लगती है। भगवान अपने आप उपदेश करने लगते हैं- अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:। देखो, एक लोक-व्यवहार है। पहले जब वर्णाश्रम-धर्म की महिमा थी तो लोग संन्यासी और योगी को बड़ा मानते थे। यह प्रसिद्धि थी कि एक तो संन्यासी न होने पर भी योगाभ्यासी है, वह बड़ा है। यहाँ तक कि जो आसन बाँधकर निष्क्रिय होकर बैठ गया वह योगी घोषित हो गया। कुछ आसन, कुछ प्राणायाम और कुछ प्रत्याहार करना का गया तो योगिराज की उपाधि मिल गयी। आजकल बम्बई आदि बड़े शहरों में जब स्त्रियाँ मोटी हो जाती हैं तब वे हेल्थसेन्टर में जाकर कुछ आसन सीख आती हैं तो उसका नाम ‘योग’ बोलती हैं। किन्तु थोड़ी-सी कसरत सीख लेने का नाम योग नहीं, आसन-प्राणायाम आदि योग नहीं, योग के अंग हैं। योगी दूसरों से कैसा व्यवहार करे, इसका नाम है यम अर्थात् सत्य, अस्तेय आदि। इसी प्रकार योगी स्वयं में कैसा व्यवहार करे, वह है नियम अर्थात शौच, तपस्या, सन्तोष, ईश्वर-प्रणिधान आदि। योगी स्वयं से नियम से रहे, दूसरो से सत्य, अहिंसा का बर्ताव करे और शरीर को आसन से ठीक रक्खे, यह अन्तरंग योग हुआ। सबसे पहले लोकव्यवहार बाद में स्वयं का नियमन और फिर शरीर की सम्भाल। उसके पश्चात प्राणों को साध ले, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों को साध ले और धारणा से मन को एक स्थान में स्थित करे। मन को अमुक समय तक स्थापित करने का नाम ध्यान है। जिस वस्तु में ध्यान लगे उसमें तन्मय हो जाने का नाम है समाधि। इन सारी अवस्थाओं की विवेकख्याति होकर अपने स्वरूप में स्थित होना द्रष्टा का स्वरूपावस्थान ही योग है। जैसा कि बताया गया - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि- ये योग के आठ अंग हैं और योग इनसे विलक्षण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.1
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