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− | + | '''यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: ।''' | |
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− | गीता की यह जो फलश्रुति है, उसमें यह नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको यह फल मिलेगा, बैकुण्ठ मिलेगा, अथवा आप मरने के बाद मुक्त हो जायेंगे। यह भी नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको समाधि लग जायेगी। ऐसी कोई भी बात नहीं। तब क्या है? यही कि आप जो साधन कर रहे है, कर्म कर रहे हैं, उपाय कर रहे हैं, वही योग है-‘योगः संहननोपायः’ योग शब्द का अर्थ है जोड़ना, योग शब्द का अर्थ है उपाय, योग शब्द का अर्थ है करना। तो योगेश्वर का तात्पर्य है कि आप जो कर्म कर रहे हैं, उसका प्रवर्तक ईश्वर है, उसका निर्वाहक ईश्वर है, उसका फलदाता ईश्वर है। आप तीन बातों पर ध्यान रखें, जो कर्म आप कर रहे हैं उसकी प्रेरणा देने वाला परमेश्वर है, उसको | + | गीता की यह जो फलश्रुति है, उसमें यह नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको यह फल मिलेगा, बैकुण्ठ मिलेगा, अथवा आप मरने के बाद मुक्त हो जायेंगे। यह भी नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको समाधि लग जायेगी। ऐसी कोई भी बात नहीं। तब क्या है? यही कि आप जो साधन कर रहे है, [[कर्म]] कर रहे हैं, उपाय कर रहे हैं, वही योग है- ‘योगः संहननोपायः’ योग शब्द का अर्थ है जोड़ना, योग शब्द का अर्थ है उपाय, योग शब्द का अर्थ है करना। तो योगेश्वर का तात्पर्य है कि आप जो कर्म कर रहे हैं, उसका प्रवर्तक [[ईश्वर]] है, उसका निर्वाहक ईश्वर है, उसका फलदाता ईश्वर है। आप तीन बातों पर ध्यान रखें, जो कर्म आप कर रहे हैं उसकी प्रेरणा देने वाला परमेश्वर है, उसको निभाने वाला परमेश्वर है और पूरा करने वाला भी परमेश्वर है। |
− | आप तो अर्जुन की तरह हाथ-पाँव बिल्कुल ठीक रखकर धनुष-बाण हाथ में लेकर, लक्ष्यवेध के लिए तैयार रहिये। तात्पर्य यह कि आपके रूप में जीव कर्म करने के लिए उद्यत है और प्रेरणा, निर्वाह तथा पूर्णता प्रदान करने के लिए परमेश्वर प्रस्तुत है। फिर तो इस लोकव्यवहार में आपको | + | आप तो [[अर्जुन]] की तरह हाथ-पाँव बिल्कुल ठीक रखकर [[धनुष]]-[[बाण]] हाथ में लेकर, लक्ष्यवेध के लिए तैयार रहिये। तात्पर्य यह कि आपके रूप में जीव कर्म करने के लिए उद्यत है और प्रेरणा, निर्वाह तथा पूर्णता प्रदान करने के लिए परमेश्वर प्रस्तुत है। फिर तो इस लोकव्यवहार में आपको श्री की प्राप्ति होगी, विजय की प्राप्ति होगी, भूति अर्थात वैभव की प्राप्ति होगी और आप एक निश्चयात्मिका स्थिति में चलेंगे। [[भगवान श्रीकृष्ण]] कहते हैं कि मेरा निश्चय, मेरा [[ज्ञान]], मेरी [[बुद्धि]] वहीं होगी जहाँ मेरी प्रेरणा होगी। इसीलिए [[संजय]] बोलते हैं कि जहाँ श्रीकृष्ण प्रेरक हैं, निर्वाहक हैं, पूर्णता का दान करने वाले हैं और जीव अपने कर्तव्य में परायण है, अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है वहाँ शंका की कोई बात नहीं। वहाँ तो श्री है, विजय है वैभव है, ध्रुव नीति है और वहीं भगवान का ज्ञान भी है। |
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16:17, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
यही गीता के अन्त में है। गीता का उपसंहार इस प्रकार है- यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । गीता की यह जो फलश्रुति है, उसमें यह नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको यह फल मिलेगा, बैकुण्ठ मिलेगा, अथवा आप मरने के बाद मुक्त हो जायेंगे। यह भी नहीं कि आप गीता पढ़ेंगे तो आपको समाधि लग जायेगी। ऐसी कोई भी बात नहीं। तब क्या है? यही कि आप जो साधन कर रहे है, कर्म कर रहे हैं, उपाय कर रहे हैं, वही योग है- ‘योगः संहननोपायः’ योग शब्द का अर्थ है जोड़ना, योग शब्द का अर्थ है उपाय, योग शब्द का अर्थ है करना। तो योगेश्वर का तात्पर्य है कि आप जो कर्म कर रहे हैं, उसका प्रवर्तक ईश्वर है, उसका निर्वाहक ईश्वर है, उसका फलदाता ईश्वर है। आप तीन बातों पर ध्यान रखें, जो कर्म आप कर रहे हैं उसकी प्रेरणा देने वाला परमेश्वर है, उसको निभाने वाला परमेश्वर है और पूरा करने वाला भी परमेश्वर है। आप तो अर्जुन की तरह हाथ-पाँव बिल्कुल ठीक रखकर धनुष-बाण हाथ में लेकर, लक्ष्यवेध के लिए तैयार रहिये। तात्पर्य यह कि आपके रूप में जीव कर्म करने के लिए उद्यत है और प्रेरणा, निर्वाह तथा पूर्णता प्रदान करने के लिए परमेश्वर प्रस्तुत है। फिर तो इस लोकव्यवहार में आपको श्री की प्राप्ति होगी, विजय की प्राप्ति होगी, भूति अर्थात वैभव की प्राप्ति होगी और आप एक निश्चयात्मिका स्थिति में चलेंगे। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा निश्चय, मेरा ज्ञान, मेरी बुद्धि वहीं होगी जहाँ मेरी प्रेरणा होगी। इसीलिए संजय बोलते हैं कि जहाँ श्रीकृष्ण प्रेरक हैं, निर्वाहक हैं, पूर्णता का दान करने वाले हैं और जीव अपने कर्तव्य में परायण है, अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है वहाँ शंका की कोई बात नहीं। वहाँ तो श्री है, विजय है वैभव है, ध्रुव नीति है और वहीं भगवान का ज्ञान भी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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