छो (Text replacement - "|- | [[चित्र:Prev.png|" to "|- | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Prev.png|") |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-2 : अध्याय 5'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-2 : अध्याय 5'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 11'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 11'''</div> | ||
− | तो | + | तो '''सुहृदं सर्वभूतानां'''- [[ईश्वर]] हमारा सुहृद् है [[मित्र]] है वह सोते-जागते‚ सपना देखते‚ रण में‚ वन में‚ सर्वत्र हमारी मदद करता है। आवश्यकता है ईश्वर को सुह्द बनाने की नहीं, उसके सुहृद्पने को जानने की है। किसी ने कहा कि ईश्वर किसी-किसी बड़े आदमी का होता होगा। बोले- नहीं, वह सबका सुहृद् है। कितने आश्वासन की बात है। जो लोग अपने पाप से, ताप से, उद्वेग से, दोषों से बहुत व्याकुल हैं, उन्हें निराश न होकर यह निश्चय करना चाहिए कि ईश्वर उनका भी मददगार है, मित्र है, भला चाहता है। यह जानने मात्र से ही उनको आश्वासन मिलेगा। लोग कहते हैं कि वैदिक धर्म में, हिन्दू धर्म में पापों की चर्चा बहुत है। ठीक है, पापों की बात है, परन्तु उसके साथ-साथ आश्वासन की भी तो बात है। कोई चाहे कितना भी पापी हो किन्तु एक राम नाम, एक ज्ञान, एक भाव, स्मृति उसका कल्याण कर देगी। मनुष्य के कल्याण के लिए इतना बड़ा आश्वासन अन्य धर्मों में मिलना बड़ा मुश्किल है। हमारा धर्म तो आश्वासन का धर्म है। |
<poem style="text-align:center;">'''भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।'''</poem> | <poem style="text-align:center;">'''भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।'''</poem> | ||
− | परमेश्वर यज्ञ और तपस्या का भोक्ता है। यज्ञ का फल तो उसको मिलता है जो यज्ञ करता है अथवा उस देवता को मिलता है जिसके उद्देश्य से यज्ञ किया जाता है। परमेश्वर कर्ता के अन्दर अन्तर्यामी रूप से बैठा है और भोक्ता के अन्दर भोक्त के रूप में भी बैठा हुआ है। असल में हमारा आत्मचैतन्य ही अन्तःकरण में प्रवेश करके अहं को कर्ता बना देता है और वही अपने मन से बनाये हुए देवता के शरीर में प्रवेश करके उसको भोक्ता बना देता है। देवता में भोक्तारूप से और अन्तःकरण में कर्तारूप से एक ही परमेश्वर बैठा हुआ है। जो भोक्तृदेवतावच्छिन्न चैतन्य है, वही कर्तृजीवावच्छिन्न चैतन्य है। ‘भोक्तारं यज्ञतपसां’ का दूसरा अर्थ ऐसे समझो कि आप जो दूसरों को लिखते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं, भला करते हैं, उसका नाम ही यज्ञ है। और, आप अपने-शरीर में जो संयम करते हैं, उसका नाम तप है। तो, स्वयं अपने को संयम में रखिये और दूसरों को सुख पहुँचाइये। निश्चय ही इसका उपभोग ईश्वर करेगा। ईश्वर ही आपके शरीर में बैठकर आपके संयम का स्वाद लेता है और सामने वाले के शरीर में बैठकर उसके सुख का आस्वादन करता है। वह सबका स्वामी सर्वलोक महेश्वर है। उसके लिए अपना काम ठीक कीजिये। ईश्वर कैसे प्रसन्न होगा, इसकी चिन्ता किये बिना आप इस बातपर दृष्टि रखिये कि आपका अन्तःकरण कितना निर्मल है और आप किस प्रकार पवित्र हृदय से काम कर रहे हैं। फिर ईश्वर तो आपका सुहृद है ही और आपको केवल ज्ञानमात्र हो जाने से ही शान्ति मिलेगी-‘ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ ऐसे ही अवसर के लिए भगवान् का यह वचन है- | + | परमेश्वर [[यज्ञ]] और [[तपस्या]] का भोक्ता है। यज्ञ का फल तो उसको मिलता है जो यज्ञ करता है अथवा उस [[देवता]] को मिलता है जिसके उद्देश्य से यज्ञ किया जाता है। परमेश्वर कर्ता के अन्दर अन्तर्यामी रूप से बैठा है और भोक्ता के अन्दर भोक्त के रूप में भी बैठा हुआ है। असल में हमारा आत्मचैतन्य ही अन्तःकरण में प्रवेश करके अहं को कर्ता बना देता है और वही अपने मन से बनाये हुए देवता के शरीर में प्रवेश करके उसको भोक्ता बना देता है। देवता में भोक्तारूप से और अन्तःकरण में कर्तारूप से एक ही परमेश्वर बैठा हुआ है। जो भोक्तृदेवतावच्छिन्न चैतन्य है, वही कर्तृजीवावच्छिन्न चैतन्य है। |
+ | |||
+ | ‘भोक्तारं यज्ञतपसां’ का दूसरा अर्थ ऐसे समझो कि आप जो दूसरों को लिखते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं, भला करते हैं, उसका नाम ही यज्ञ है। और, आप अपने-शरीर में जो संयम करते हैं, उसका नाम तप है। तो, स्वयं अपने को संयम में रखिये और दूसरों को सुख पहुँचाइये। निश्चय ही इसका उपभोग ईश्वर करेगा। ईश्वर ही आपके शरीर में बैठकर आपके संयम का स्वाद लेता है और सामने वाले के शरीर में बैठकर उसके सुख का आस्वादन करता है। वह सबका स्वामी सर्वलोक महेश्वर है। उसके लिए अपना काम ठीक कीजिये। ईश्वर कैसे प्रसन्न होगा, इसकी चिन्ता किये बिना आप इस बातपर दृष्टि रखिये कि आपका अन्तःकरण कितना निर्मल है और आप किस प्रकार पवित्र हृदय से काम कर रहे हैं। फिर [[ईश्वर]] तो आपका सुहृद है ही और आपको केवल ज्ञानमात्र हो जाने से ही शान्ति मिलेगी- ‘ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ ऐसे ही अवसर के लिए भगवान् का यह वचन है- | ||
<poem style="text-align:center;">'''तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्यसि शाश्वतम्।'''</poem> | <poem style="text-align:center;">'''तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्यसि शाश्वतम्।'''</poem> | ||
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 324]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 324]] |
16:14, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 11
तो सुहृदं सर्वभूतानां- ईश्वर हमारा सुहृद् है मित्र है वह सोते-जागते‚ सपना देखते‚ रण में‚ वन में‚ सर्वत्र हमारी मदद करता है। आवश्यकता है ईश्वर को सुह्द बनाने की नहीं, उसके सुहृद्पने को जानने की है। किसी ने कहा कि ईश्वर किसी-किसी बड़े आदमी का होता होगा। बोले- नहीं, वह सबका सुहृद् है। कितने आश्वासन की बात है। जो लोग अपने पाप से, ताप से, उद्वेग से, दोषों से बहुत व्याकुल हैं, उन्हें निराश न होकर यह निश्चय करना चाहिए कि ईश्वर उनका भी मददगार है, मित्र है, भला चाहता है। यह जानने मात्र से ही उनको आश्वासन मिलेगा। लोग कहते हैं कि वैदिक धर्म में, हिन्दू धर्म में पापों की चर्चा बहुत है। ठीक है, पापों की बात है, परन्तु उसके साथ-साथ आश्वासन की भी तो बात है। कोई चाहे कितना भी पापी हो किन्तु एक राम नाम, एक ज्ञान, एक भाव, स्मृति उसका कल्याण कर देगी। मनुष्य के कल्याण के लिए इतना बड़ा आश्वासन अन्य धर्मों में मिलना बड़ा मुश्किल है। हमारा धर्म तो आश्वासन का धर्म है। भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। परमेश्वर यज्ञ और तपस्या का भोक्ता है। यज्ञ का फल तो उसको मिलता है जो यज्ञ करता है अथवा उस देवता को मिलता है जिसके उद्देश्य से यज्ञ किया जाता है। परमेश्वर कर्ता के अन्दर अन्तर्यामी रूप से बैठा है और भोक्ता के अन्दर भोक्त के रूप में भी बैठा हुआ है। असल में हमारा आत्मचैतन्य ही अन्तःकरण में प्रवेश करके अहं को कर्ता बना देता है और वही अपने मन से बनाये हुए देवता के शरीर में प्रवेश करके उसको भोक्ता बना देता है। देवता में भोक्तारूप से और अन्तःकरण में कर्तारूप से एक ही परमेश्वर बैठा हुआ है। जो भोक्तृदेवतावच्छिन्न चैतन्य है, वही कर्तृजीवावच्छिन्न चैतन्य है। ‘भोक्तारं यज्ञतपसां’ का दूसरा अर्थ ऐसे समझो कि आप जो दूसरों को लिखते हैं, दूसरों का उपकार करते हैं, भला करते हैं, उसका नाम ही यज्ञ है। और, आप अपने-शरीर में जो संयम करते हैं, उसका नाम तप है। तो, स्वयं अपने को संयम में रखिये और दूसरों को सुख पहुँचाइये। निश्चय ही इसका उपभोग ईश्वर करेगा। ईश्वर ही आपके शरीर में बैठकर आपके संयम का स्वाद लेता है और सामने वाले के शरीर में बैठकर उसके सुख का आस्वादन करता है। वह सबका स्वामी सर्वलोक महेश्वर है। उसके लिए अपना काम ठीक कीजिये। ईश्वर कैसे प्रसन्न होगा, इसकी चिन्ता किये बिना आप इस बातपर दृष्टि रखिये कि आपका अन्तःकरण कितना निर्मल है और आप किस प्रकार पवित्र हृदय से काम कर रहे हैं। फिर ईश्वर तो आपका सुहृद है ही और आपको केवल ज्ञानमात्र हो जाने से ही शान्ति मिलेगी- ‘ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।’ ऐसे ही अवसर के लिए भगवान् का यह वचन है- तत्प्रसादात् परां शान्तिं स्थानं प्राप्यसि शाश्वतम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज