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− | श्रीकृष्ण ने गीता में कितनी बढ़िया बात बतायी है। वे कहते हैं कि इस संसार में जो भोग मिलते हैं वे अन्ततोगत्वा दुःखदायी होते हैं। हमारी आँख की रोशनी जब एक सुन्दर आकृति का दर्शन करेगी तभी उसकी ओर आकर्षित होगी। ये जो नाना प्रकार के पुष्प हैं, व्यक्तियों के रूप में भी पुष्प होते हैं, ये भी प्रकृति के पुष्प ही हैं। यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह लड़का है, यह लड़की है-इनका सुन्दर रूप देखने पर हमारी आँख प्रसन्न होती है, एक बढ़िया-सी चिड़िया देखकर खुश होती है, बढ़िया-सा कुत्ता देखकर प्रसन्न होती है। और भी बहुत सारी चीजें देखकर हमारी आँख खुश होती रहती है। किन्तु ये जो संस्पर्श भोग हैं, वे बाद में दुःख देते हैं। | + | [[श्रीकृष्ण]] ने [[गीता]] में कितनी बढ़िया बात बतायी है। वे कहते हैं कि इस संसार में जो भोग मिलते हैं वे अन्ततोगत्वा दुःखदायी होते हैं। हमारी आँख की रोशनी जब एक सुन्दर आकृति का दर्शन करेगी तभी उसकी ओर आकर्षित होगी। ये जो नाना प्रकार के पुष्प हैं, व्यक्तियों के रूप में भी पुष्प होते हैं, ये भी प्रकृति के पुष्प ही हैं। यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह लड़का है, यह लड़की है- इनका सुन्दर रूप देखने पर हमारी आँख प्रसन्न होती है, एक बढ़िया-सी चिड़िया देखकर खुश होती है, बढ़िया-सा कुत्ता देखकर प्रसन्न होती है। और भी बहुत सारी चीजें देखकर हमारी आँख खुश होती रहती है। किन्तु ये जो संस्पर्श भोग हैं, वे बाद में दुःख देते हैं। अर्थात दुःख के कारण हैं। इनसे जो फल पैदा होता है, वह दुःख होता है। क्योंकि एक जगह जो सुख मिलता है, वह फिर दूसरी जगह नहीं मिलता, दूसरे समय में नहीं मिलता और दूसरे से नहीं मिलता। फिर उनकी याद करके हम अपना दिल ही तो जलाते रहेंगे। |
− | दूसरी बात यह बतायी कि ‘आद्यन्तवन्तः’ | + | दूसरी बात यह बतायी कि ‘आद्यन्तवन्तः’ अर्थात ये भोग तो मेहमान की तरह आये हुए हैं, इनका आदि भी है, अन्त भी है। इनसे प्रीति करना तो परदेशी से प्रीति करने जैसा है। आज तो ये रास्ते पर मिले, प्याऊ पर मिले, तालाब में मिले, क्लब में मिले, होटल में मिले; बाद में फिर कभी मिलेंगे कि नहीं, कुछ ठिकाना नहीं। ये तो मिलकर बिछुड़ने वाले हैं और आगे दुःख देने वाले हैं। '''जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना'''- जो फलता है वह झड़ जाता है; जो जलता है, वह बुझ जाता है, जो मिलता है वह बिछुड़ जाता है- इसलिए क्यों इनसे सुख की आशा करते हो? |
− | अब तीसरी बात बताते हैं- | + | अब तीसरी बात बताते हैं- '''न तेषु रमते बुधः''' समझदार आदमी उन भागों में नहीं रमता। रमने की जगह तो केवल अपना आत्मा है। '''यथा सूत्रेण प्रबद्धो हि शकुनिर्दिशं दिशं पतित्वा अन्यत्रायतनं लब्ध्वा स्वबन्धनमेव उपाश्रयते''' -उपनिषद् का कहना है कि एक चिड़िया सूत से बँधी हुई है, वह फड़फड़ाती है। दाहिने जाती है, बायें जाती है, सामने जाती है, पीछे जाती है परन्तु सूत से बँधी होने के कारण कहीं दूसरी जगह नहीं जा सकती। अन्त में जहाँ बँधी हुई है, वहीं आकर बैठ जाती है और उसके फड़फड़ाने की तकलीफ बिल्कुल मिट जाती है। इसी तरह- ‘प्राणबन्धनं हि सौम्य मनः’ अपना मन अपने [[आत्मा]] के साथ बँधा हुआ है। वह चाहे कितना भी भागने की कोशिश करे, आँख के दरवाजे से भागे, कान के दरवाजे से भागे, नाक के दरवाजे से भागे, जीभ के दरवाजे से भागे, परन्तु वह भाग नहीं सकता। उसको कहीं भी [[शान्ति]] नहीं मिलेगी लौटकर वहीं आना पड़ेगा, जहाँ वह बँधा हुआ है। |
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12:44, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
श्रीकृष्ण ने गीता में कितनी बढ़िया बात बतायी है। वे कहते हैं कि इस संसार में जो भोग मिलते हैं वे अन्ततोगत्वा दुःखदायी होते हैं। हमारी आँख की रोशनी जब एक सुन्दर आकृति का दर्शन करेगी तभी उसकी ओर आकर्षित होगी। ये जो नाना प्रकार के पुष्प हैं, व्यक्तियों के रूप में भी पुष्प होते हैं, ये भी प्रकृति के पुष्प ही हैं। यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह लड़का है, यह लड़की है- इनका सुन्दर रूप देखने पर हमारी आँख प्रसन्न होती है, एक बढ़िया-सी चिड़िया देखकर खुश होती है, बढ़िया-सा कुत्ता देखकर प्रसन्न होती है। और भी बहुत सारी चीजें देखकर हमारी आँख खुश होती रहती है। किन्तु ये जो संस्पर्श भोग हैं, वे बाद में दुःख देते हैं। अर्थात दुःख के कारण हैं। इनसे जो फल पैदा होता है, वह दुःख होता है। क्योंकि एक जगह जो सुख मिलता है, वह फिर दूसरी जगह नहीं मिलता, दूसरे समय में नहीं मिलता और दूसरे से नहीं मिलता। फिर उनकी याद करके हम अपना दिल ही तो जलाते रहेंगे। दूसरी बात यह बतायी कि ‘आद्यन्तवन्तः’ अर्थात ये भोग तो मेहमान की तरह आये हुए हैं, इनका आदि भी है, अन्त भी है। इनसे प्रीति करना तो परदेशी से प्रीति करने जैसा है। आज तो ये रास्ते पर मिले, प्याऊ पर मिले, तालाब में मिले, क्लब में मिले, होटल में मिले; बाद में फिर कभी मिलेंगे कि नहीं, कुछ ठिकाना नहीं। ये तो मिलकर बिछुड़ने वाले हैं और आगे दुःख देने वाले हैं। जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना- जो फलता है वह झड़ जाता है; जो जलता है, वह बुझ जाता है, जो मिलता है वह बिछुड़ जाता है- इसलिए क्यों इनसे सुख की आशा करते हो? अब तीसरी बात बताते हैं- न तेषु रमते बुधः समझदार आदमी उन भागों में नहीं रमता। रमने की जगह तो केवल अपना आत्मा है। यथा सूत्रेण प्रबद्धो हि शकुनिर्दिशं दिशं पतित्वा अन्यत्रायतनं लब्ध्वा स्वबन्धनमेव उपाश्रयते -उपनिषद् का कहना है कि एक चिड़िया सूत से बँधी हुई है, वह फड़फड़ाती है। दाहिने जाती है, बायें जाती है, सामने जाती है, पीछे जाती है परन्तु सूत से बँधी होने के कारण कहीं दूसरी जगह नहीं जा सकती। अन्त में जहाँ बँधी हुई है, वहीं आकर बैठ जाती है और उसके फड़फड़ाने की तकलीफ बिल्कुल मिट जाती है। इसी तरह- ‘प्राणबन्धनं हि सौम्य मनः’ अपना मन अपने आत्मा के साथ बँधा हुआ है। वह चाहे कितना भी भागने की कोशिश करे, आँख के दरवाजे से भागे, कान के दरवाजे से भागे, नाक के दरवाजे से भागे, जीभ के दरवाजे से भागे, परन्तु वह भाग नहीं सकता। उसको कहीं भी शान्ति नहीं मिलेगी लौटकर वहीं आना पड़ेगा, जहाँ वह बँधा हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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