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− | इसमें जो ‘अश्नुते’ शब्द है उसका अर्थ ‘अश्नाति’ नहीं होता। अश्नाति का अर्थ होता है खाना-‘अशतिं-नाशितं’। ‘अशितं’ माने भोजन और नाशितं माने नाश्ता। ‘अश्नुते’ क्रिया पद का अर्थ व्याप्ति है। जैसे लिपि-भेद होता है। | + | मनुष्य को उस अक्षय सुख की प्राप्ति होती है- ‘सुखमक्षयमश्नुते’। |
+ | इसमें जो ‘अश्नुते’ शब्द है उसका अर्थ ‘अश्नाति’ नहीं होता। अश्नाति का अर्थ होता है खाना- ‘अशतिं-नाशितं’। ‘अशितं’ माने भोजन और नाशितं माने नाश्ता। ‘अश्नुते’ क्रिया पद का अर्थ व्याप्ति है। जैसे लिपि-भेद होता है। अंग्रेजघी की लिपि अलग है, फारसी की लिपि अलग है, नागरी लिपि अलग है। इस प्रकार भाषाओं की भिन्न-भिन्न लिपियाँ होती हैं। परन्तु जिसका उच्चारण ‘अ’ होता है वह एक होता है। तो ‘अश्नुते’ का अर्थ यह होता है कि लिपि के आकार का भेद होने पर भी ‘अ’ अक्षर है। नित्य है लिपि क्षर है। और ‘अ’ से जिसका उच्चारण किया जाता है वह अक्षर है। अनश्वर है। तो ‘अश्नुते’ का तात्पर्य यह हुआ कि विषय बदलते हैं, इन्द्रियाँ बदलती हैं, मनोवृत्तियाँ बदलती हैं, वस्तु बदलती है, व्यक्ति बदलते हैं, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति बदलती है। समाधि और मूर्च्छा बदलती है; परन्तु सुख जैसा-का-तैसा रहता है क्योंकि वह अक्षर होता है। ऐसा कब होगा? ऐसा तब होगा जब अपना [[आत्मा]] ही सुखरूप होगा। | ||
− | यह सर्वथा स्वतन्त्र और स्वावलम्बी बनाने की विद्या है। आप अपने सुख को ही बदल लीजिये। पराये के पीछे यह कहते हुए मत दौड़िये कि तू हमको सुख दे जा। यह हमारे अनुभव की बात है आठ-आठ, दस-दस दिन की रखी हुई बिल्कुल सूखी रोटियां जो खाने लायक नहीं, भूख लगने पर उनको मुँह में डाला और चुगलाया तो ऐसा रस निकला, ऐसा स्वाद आया कि उसके सामने ताजी रोटियाँ फीकी पड़ गयीं। तो मनुष्य के मन में यह भ्रम ही होता है कि अमुक ढंग की वस्तु मिलेगी, अमुक ढंग के लोग मिलेंगे तभी हम सुखी होंगे। क्या आप बच्चों के साथ खेलकर सुखी नहीं हो सकते? क्या आप सामान्य लोगों से मिलकर उनके स्तर की | + | यह सर्वथा स्वतन्त्र और स्वावलम्बी बनाने की विद्या है। आप अपने सुख को ही बदल लीजिये। पराये के पीछे यह कहते हुए मत दौड़िये कि तू हमको सुख दे जा। यह हमारे अनुभव की बात है आठ-आठ, दस-दस [[दिन]] की रखी हुई बिल्कुल सूखी रोटियां जो खाने लायक नहीं, भूख लगने पर उनको मुँह में डाला और चुगलाया तो ऐसा रस निकला, ऐसा स्वाद आया कि उसके सामने ताजी रोटियाँ फीकी पड़ गयीं। तो मनुष्य के मन में यह भ्रम ही होता है कि अमुक ढंग की वस्तु मिलेगी, अमुक ढंग के लोग मिलेंगे तभी हम सुखी होंगे। क्या आप बच्चों के साथ खेलकर सुखी नहीं हो सकते? क्या आप सामान्य लोगों से मिलकर उनके स्तर की बातचीत करके सुखी नहीं हो सकते? अरे भाई, उनके भीतर भी वही आत्मा है, वही परमात्मा है, जो तुम्हारे भीतर है- |
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− | + | '''ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते ।''' | |
− | + | '''आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध: ॥'''<ref>[[श्लोक]] 5.22</ref></poem> | |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 308]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 308]] | ||
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12:40, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
मनुष्य को उस अक्षय सुख की प्राप्ति होती है- ‘सुखमक्षयमश्नुते’। इसमें जो ‘अश्नुते’ शब्द है उसका अर्थ ‘अश्नाति’ नहीं होता। अश्नाति का अर्थ होता है खाना- ‘अशतिं-नाशितं’। ‘अशितं’ माने भोजन और नाशितं माने नाश्ता। ‘अश्नुते’ क्रिया पद का अर्थ व्याप्ति है। जैसे लिपि-भेद होता है। अंग्रेजघी की लिपि अलग है, फारसी की लिपि अलग है, नागरी लिपि अलग है। इस प्रकार भाषाओं की भिन्न-भिन्न लिपियाँ होती हैं। परन्तु जिसका उच्चारण ‘अ’ होता है वह एक होता है। तो ‘अश्नुते’ का अर्थ यह होता है कि लिपि के आकार का भेद होने पर भी ‘अ’ अक्षर है। नित्य है लिपि क्षर है। और ‘अ’ से जिसका उच्चारण किया जाता है वह अक्षर है। अनश्वर है। तो ‘अश्नुते’ का तात्पर्य यह हुआ कि विषय बदलते हैं, इन्द्रियाँ बदलती हैं, मनोवृत्तियाँ बदलती हैं, वस्तु बदलती है, व्यक्ति बदलते हैं, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति बदलती है। समाधि और मूर्च्छा बदलती है; परन्तु सुख जैसा-का-तैसा रहता है क्योंकि वह अक्षर होता है। ऐसा कब होगा? ऐसा तब होगा जब अपना आत्मा ही सुखरूप होगा। यह सर्वथा स्वतन्त्र और स्वावलम्बी बनाने की विद्या है। आप अपने सुख को ही बदल लीजिये। पराये के पीछे यह कहते हुए मत दौड़िये कि तू हमको सुख दे जा। यह हमारे अनुभव की बात है आठ-आठ, दस-दस दिन की रखी हुई बिल्कुल सूखी रोटियां जो खाने लायक नहीं, भूख लगने पर उनको मुँह में डाला और चुगलाया तो ऐसा रस निकला, ऐसा स्वाद आया कि उसके सामने ताजी रोटियाँ फीकी पड़ गयीं। तो मनुष्य के मन में यह भ्रम ही होता है कि अमुक ढंग की वस्तु मिलेगी, अमुक ढंग के लोग मिलेंगे तभी हम सुखी होंगे। क्या आप बच्चों के साथ खेलकर सुखी नहीं हो सकते? क्या आप सामान्य लोगों से मिलकर उनके स्तर की बातचीत करके सुखी नहीं हो सकते? अरे भाई, उनके भीतर भी वही आत्मा है, वही परमात्मा है, जो तुम्हारे भीतर है- ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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