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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | ||
− | अकर्मण्यता-निकम्मेपन में ही दिमाग | + | अकर्मण्यता-निकम्मेपन में ही दिमाग में बुराई फलती-फूलती है। सब अकेले में बैठने के अधिकारी नहीं होते हैं। इसलिए गीता योग साधना की आवश्यकता बताते हुए संकल्प का संन्यास करने की बात कहती है कर्मासक्ति में न फँसो, भोगासक्ति में न फँसो और अपने संकल्पों के निवारण की सामर्थ्य रक्खें। मैं जिनके पास योग सीखने के लिए जाता था, उन्होंने कहा बैठो और पूछा कि आसन लगाकर कितनी देर बैठ सकते हो? मैंने कहा घण्टे भर। वे बोले कि ऐसे नहीं। पहले दिन तुम दस मिनट बैठो। एक सप्ताह तक प्रतिदिन दस-दस मिनट अविचल बैठने का अभ्यास करो। |
इसी तरह दूसरे सप्ताह पन्द्रह-पन्द्रह मिनट और तीसरे सप्ताह बीस-बीस मिनट बैठो। फिर प्रति-सप्ताह पाँच-पाच मिनट बढ़ाते जाओ। जब आधा घण्टा पूरा हो जाये तो चार सप्ताह तक उसे कायम रक्खो। फिर दूसरे महीने से पाँच-पाँच मिनट बढ़ाते हुए एक घण्टा पूरा करो। आसन में सुख आना चाहिए - ‘स्थिरसुखमासनम्।’ आप लोगों ने योगदर्शन का नाम सुना होगा। वह साँप की तरह लेटने और गर्दभासन, ऊष्ट्रासन आदि करने की कला नहीं सिखाता। यह सब न तो योगदर्शन में है और न योगभाष्य में। आसन तो सुखासन होना चाहिए। और उसमें अचलता आनी चाहिए, स्थिरता आनी चाहिए। सिद्धासन भी आसन है, पद्यासन भी आसन है, स्वस्तिकासन भी आसन है और वीरासन भी आसन है। जिस आसन में आप खूब आनन्द से, आराम से बैठ सकें। आपके दोनों घुटने धरती छू लें और पीठ की रीढ़ सीधी रहे और मुद्रा शान्त रहे, वही उपयुक्त आसन है। हर समय हिलते रहने से आसन नहीं लगता। मन के अचल होने के बाद शरीर की अचलता जो विज्ञान है, वह साधक के लिए उपयोगी नहीं है। पहले शरीर की अचलता हो फिर मन की अचलता हो। क्योंकि हम जहाँ हैं, वहाँ से ही साधन प्रारम्भ होता है। आप बैठने का अभ्यास कीजिए, चुप रहने का अभयास कीजिए आँख स्थिर रखने का अभ्यास कीजिए। | इसी तरह दूसरे सप्ताह पन्द्रह-पन्द्रह मिनट और तीसरे सप्ताह बीस-बीस मिनट बैठो। फिर प्रति-सप्ताह पाँच-पाच मिनट बढ़ाते जाओ। जब आधा घण्टा पूरा हो जाये तो चार सप्ताह तक उसे कायम रक्खो। फिर दूसरे महीने से पाँच-पाँच मिनट बढ़ाते हुए एक घण्टा पूरा करो। आसन में सुख आना चाहिए - ‘स्थिरसुखमासनम्।’ आप लोगों ने योगदर्शन का नाम सुना होगा। वह साँप की तरह लेटने और गर्दभासन, ऊष्ट्रासन आदि करने की कला नहीं सिखाता। यह सब न तो योगदर्शन में है और न योगभाष्य में। आसन तो सुखासन होना चाहिए। और उसमें अचलता आनी चाहिए, स्थिरता आनी चाहिए। सिद्धासन भी आसन है, पद्यासन भी आसन है, स्वस्तिकासन भी आसन है और वीरासन भी आसन है। जिस आसन में आप खूब आनन्द से, आराम से बैठ सकें। आपके दोनों घुटने धरती छू लें और पीठ की रीढ़ सीधी रहे और मुद्रा शान्त रहे, वही उपयुक्त आसन है। हर समय हिलते रहने से आसन नहीं लगता। मन के अचल होने के बाद शरीर की अचलता जो विज्ञान है, वह साधक के लिए उपयोगी नहीं है। पहले शरीर की अचलता हो फिर मन की अचलता हो। क्योंकि हम जहाँ हैं, वहाँ से ही साधन प्रारम्भ होता है। आप बैठने का अभ्यास कीजिए, चुप रहने का अभयास कीजिए आँख स्थिर रखने का अभ्यास कीजिए। | ||
− | आप अपनी आँख की पुतली को एक दिन में पाँच मिनट स्थिर करके बैठ जाइये, वह खुली हो चाहे बन्द हो। आप देखेंगे कि आपका मन चंचलता छोड़कर आपकी गोद में बैठ जाता है। आँख की पुतली हिलनी नहीं चाहिए। आप कुर्सी पर बैठते हैं, पाँव हिलाते रहते हैं। आसन पर बैठते है, पाँव हिलाते रहते हैं। थोड़ी देर भी स्थिर नहीं बैठ सकते। यदि आप चंचलता के वश में गये हैं तो चंचलता आपसे क्या कराके छोड़ेगी यह कहा नहीं जा सकता। | + | आप अपनी आँख की पुतली को एक दिन में पाँच मिनट स्थिर करके बैठ जाइये, वह खुली हो चाहे बन्द हो। आप देखेंगे कि आपका मन चंचलता छोड़कर आपकी गोद में बैठ जाता है। आँख की पुतली हिलनी नहीं चाहिए। आप कुर्सी पर बैठते हैं, पाँव हिलाते रहते हैं। आसन पर बैठते है, पाँव हिलाते रहते हैं। थोड़ी देर भी स्थिर नहीं बैठ सकते। यदि आप चंचलता के वश में गये हैं तो चंचलता आपसे क्या कराके छोड़ेगी यह कहा नहीं जा सकता। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 367]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 367]] | ||
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15:13, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
अकर्मण्यता-निकम्मेपन में ही दिमाग में बुराई फलती-फूलती है। सब अकेले में बैठने के अधिकारी नहीं होते हैं। इसलिए गीता योग साधना की आवश्यकता बताते हुए संकल्प का संन्यास करने की बात कहती है कर्मासक्ति में न फँसो, भोगासक्ति में न फँसो और अपने संकल्पों के निवारण की सामर्थ्य रक्खें। मैं जिनके पास योग सीखने के लिए जाता था, उन्होंने कहा बैठो और पूछा कि आसन लगाकर कितनी देर बैठ सकते हो? मैंने कहा घण्टे भर। वे बोले कि ऐसे नहीं। पहले दिन तुम दस मिनट बैठो। एक सप्ताह तक प्रतिदिन दस-दस मिनट अविचल बैठने का अभ्यास करो। इसी तरह दूसरे सप्ताह पन्द्रह-पन्द्रह मिनट और तीसरे सप्ताह बीस-बीस मिनट बैठो। फिर प्रति-सप्ताह पाँच-पाच मिनट बढ़ाते जाओ। जब आधा घण्टा पूरा हो जाये तो चार सप्ताह तक उसे कायम रक्खो। फिर दूसरे महीने से पाँच-पाँच मिनट बढ़ाते हुए एक घण्टा पूरा करो। आसन में सुख आना चाहिए - ‘स्थिरसुखमासनम्।’ आप लोगों ने योगदर्शन का नाम सुना होगा। वह साँप की तरह लेटने और गर्दभासन, ऊष्ट्रासन आदि करने की कला नहीं सिखाता। यह सब न तो योगदर्शन में है और न योगभाष्य में। आसन तो सुखासन होना चाहिए। और उसमें अचलता आनी चाहिए, स्थिरता आनी चाहिए। सिद्धासन भी आसन है, पद्यासन भी आसन है, स्वस्तिकासन भी आसन है और वीरासन भी आसन है। जिस आसन में आप खूब आनन्द से, आराम से बैठ सकें। आपके दोनों घुटने धरती छू लें और पीठ की रीढ़ सीधी रहे और मुद्रा शान्त रहे, वही उपयुक्त आसन है। हर समय हिलते रहने से आसन नहीं लगता। मन के अचल होने के बाद शरीर की अचलता जो विज्ञान है, वह साधक के लिए उपयोगी नहीं है। पहले शरीर की अचलता हो फिर मन की अचलता हो। क्योंकि हम जहाँ हैं, वहाँ से ही साधन प्रारम्भ होता है। आप बैठने का अभ्यास कीजिए, चुप रहने का अभयास कीजिए आँख स्थिर रखने का अभ्यास कीजिए। आप अपनी आँख की पुतली को एक दिन में पाँच मिनट स्थिर करके बैठ जाइये, वह खुली हो चाहे बन्द हो। आप देखेंगे कि आपका मन चंचलता छोड़कर आपकी गोद में बैठ जाता है। आँख की पुतली हिलनी नहीं चाहिए। आप कुर्सी पर बैठते हैं, पाँव हिलाते रहते हैं। आसन पर बैठते है, पाँव हिलाते रहते हैं। थोड़ी देर भी स्थिर नहीं बैठ सकते। यदि आप चंचलता के वश में गये हैं तो चंचलता आपसे क्या कराके छोड़ेगी यह कहा नहीं जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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