गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
अब एक दूसरे सज्जन की बात सुनाता हूँ। उनकी भोग रुचि है। बीमार पड़ते हैं, दवा खाते हैं। भोग का सामर्थ्य कम हो जाये तो उसको बढाने के लिए प्रयास करते हैं। भोग के बिना रह नहीं सकते। भोग के बहुत भेद होते हैं। पर हम उनका वर्णन करके कथा नहीं बढ़ाना चाहते। लोग निषिद्ध कर्मों में रुचि रखकर अनुशासन भंग कर शिष्टानुशिष्ट रीति से न चलकर, संसार का संहार करके भी भोग तो उसके लिए तैयार रहते हैं। महर्षि व्यास कहते हैं कि दूसरे को दुःख पहुँचाये बिना कोई भोगी नहीं हो सकता-
जितना-जितना भोग करेंगे, उतना- उतना भोग का कौशल बढ़ेगा। सच-झूठ की तो भगवान जाने, पर मैंने इन्दौर के एक सज्जन के बारे में सुना था। उनकी भोग में ऐसी रुचि थी कि उन्होंने विदेश जाकर किसी पशु का प्रजनन-सामर्थ्य अपने शरीर में प्राप्त कर लिया था। इसी तरह एक राजा के बारे में यह सुना था कि वह बार-बार खाता है और बार-बार वमन कर देता है। लेकिन फिर भी उसकी खाने की रुचि कम नहीं होती। यह है भोगासक्ति। अब तीसरी बात संकल्पों की देखो। भोग उतना ही करना चाहिए, जितना जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हो। यदि उसको निरन्तर बढ़ाते जाओगे तो उसकी सीमा नहीं रहेगी। फिर उसमें अपने-पराये और उचित-अनुचित का विचार सब कुछ छूट जायेगा। भोग की वासना बढती जाने पर क्या खाने और क्या नहीं खाने का विवेक नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जब अपने निज-विवेक का आदर नहीं किया जाता तब वह साथ छोड़ देता है। भर्तृहरि ने कहा है कि विवेक भ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः। जिसका विवेक नष्ट हो जाता है, उसका पतन सब ओर से हो जाता है। अब कर्म और भोग, इन दोनों की बात छोड़कर जरा भीतर घुसें क्योंकि कर्म और भोग दोनों बाह्येन्द्रियों से ही होते हैं। अब ज़रा अन्दर झाँक कर देखो कि मन की क्या हालत है? वहाँ तो जय जय सीता राम है। लोग लाटसाहब के कुत्तों के बारे में बहुत जानते हैं, परन्तु अपने मन के संकल्पों से परिचित नहीं रहते। जब लोग निकम्मे बैठते हैं तब यह कब कहाँ क्या मोड़ दे देगा, यह बताना कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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