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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | ||
− | यह हुआ कर्मकाण्ड। | + | यह हुआ कर्मकाण्ड। भगवान कहते हैं कि कर्मकाण्ड के अनुष्ठान में जिस ढंग का संकल्प किया जाता है, उस ढंग का संकल्प गीता धर्म के लिए करने की आवश्यकता नहीं। कर्मकाण्डी लोग ऐसा मानते हैं कि [[पुत्र]] की प्राप्ति के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, दीर्घायु - आरोग्य की प्राप्ति के लिए स्वर्गादि सुख की प्राप्ति के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, उसमें यदि संकल्प नहीं किया गया तो उसके बिना वह अनुष्ठान निरर्थक हो जाता है। |
− | यह सकाम कर्मकाण्डी पद्धति है। किन्तु गीता-धर्म की पद्धति यह है कि पहले विवेक करो और फिर विवेक से कर्म के प्रयोजन को समझो। प्रयोजन दूसरी वस्तु है और संकल्प दूसरी वस्तु है। चार बातें समझने की होती है। एक यह कि अमुक कर्म हम कर सकते हैं कि नहीं। बड़ी भारी फैक्टरी तो खोल दी, परन्तु उसके लिए न धन है, न योजना है, न बुद्धि है, न आदमी है। अतः पहले उसका प्रयोजन समझना आवश्यक है। फिर यह देखना चाहिए कि हमारे पास काम करने का सामर्थ्य है कि नहीं, योग्यता है कि नहीं। इसे कहते है अधिकारी का विचार, योग्यता का विचार, क्षमता का विचार। हिन्दी में जो ‘सक्षम’ शब्द चलता है, वह संस्कृत भाषा की | + | यह सकाम कर्मकाण्डी पद्धति है। किन्तु गीता-धर्म की पद्धति यह है कि पहले विवेक करो और फिर विवेक से कर्म के प्रयोजन को समझो। प्रयोजन दूसरी वस्तु है और संकल्प दूसरी वस्तु है। चार बातें समझने की होती है। एक यह कि अमुक कर्म हम कर सकते हैं कि नहीं। बड़ी भारी फैक्टरी तो खोल दी, परन्तु उसके लिए न धन है, न योजना है, न [[बुद्धि]] है, न आदमी है। अतः पहले उसका प्रयोजन समझना आवश्यक है। फिर यह देखना चाहिए कि हमारे पास काम करने का सामर्थ्य है कि नहीं, योग्यता है कि नहीं। इसे कहते है अधिकारी का विचार, योग्यता का विचार, क्षमता का विचार। हिन्दी में जो ‘सक्षम’ शब्द चलता है, वह संस्कृत भाषा की दृष्टि से गलत होता है। संस्कृत में '''सक्षम''' शब्द है परन्तु वह क्षमाशील के लिए है और समर्थ के अर्थ में केवल ‘क्षम’ है। तो, यह देखो कि अमुक कर्म के लिए हमारी क्षमता कितनी है, क्षमता पर विचार करो। |
− | दूसरे, उसके प्रयोजन पर दृष्टि डालो और यह देखो कि अमुक कर्म करते हुए हम कहाँ पहुँचेंगे? यह नहीं कि हाथ में लठिया उठायी और पानी पीटने लगे। किसी ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तो बोले | + | दूसरे, उसके प्रयोजन पर दृष्टि डालो और यह देखो कि अमुक कर्म करते हुए हम कहाँ पहुँचेंगे? यह नहीं कि हाथ में लठिया उठायी और [[पानी]] पीटने लगे। किसी ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तो बोले- यह मत पूछो। हम कोई सकाम कर्म थोड़े ही करते हैं, निष्काम कर्म कर रहे हैं। भाई, निष्काम कर्म का अर्थ निरर्थक पानी पीटना नहीं होता, वह तो सप्रयोजन, लोकोपकारी, विश्वात्मा परमात्मा की सेवा के लिए होता है आजकल ऐसे-ऐसे निष्कामकर्मी पैदा हो गये हैं जिनके बच्चों की पलटन खड़ी हो जाये। उनसे पूछो कि इतने बच्चे कैसे हो गये तो बोलेंगे कि निष्काम भाव से। दुकान पर बैठते हैं। छल से, कपट से, बेइमानी से, धोखा देकर ग्राहको की गाँठ काटते हैं और कहते हैं कि हम तो निष्काम भाव से करते हैं। ऐसे निष्काम भाव से तो सावधान रहना चाहिए। कर्म के पीछे काम संकल्प, भोग संकल्प नहीं होना चाहिए। परन्तु अपनी योग्यता का, क्षमता का, प्रयोजन का विचार अवश्य होना चाहिए। |
− | तीसरे, उस कर्म की क्या रूपरेखा होगी, इस पर भी विचार होना चाहिए। | + | तीसरे, उस [[कर्म]] की क्या रूपरेखा होगी, इस पर भी विचार होना चाहिए। चौथी बात है कर्म के परिणाम अथवा उसकी परिणति पर विचार। प्रत्येग कर्म का परिणाम होता है, उसकी परिणति होती है। कर्म हमें एक स्थान पर पहुँचाता है। |
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14:10, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
यह हुआ कर्मकाण्ड। भगवान कहते हैं कि कर्मकाण्ड के अनुष्ठान में जिस ढंग का संकल्प किया जाता है, उस ढंग का संकल्प गीता धर्म के लिए करने की आवश्यकता नहीं। कर्मकाण्डी लोग ऐसा मानते हैं कि पुत्र की प्राप्ति के लिए, धन की प्राप्ति के लिए, दीर्घायु - आरोग्य की प्राप्ति के लिए स्वर्गादि सुख की प्राप्ति के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है, उसमें यदि संकल्प नहीं किया गया तो उसके बिना वह अनुष्ठान निरर्थक हो जाता है। यह सकाम कर्मकाण्डी पद्धति है। किन्तु गीता-धर्म की पद्धति यह है कि पहले विवेक करो और फिर विवेक से कर्म के प्रयोजन को समझो। प्रयोजन दूसरी वस्तु है और संकल्प दूसरी वस्तु है। चार बातें समझने की होती है। एक यह कि अमुक कर्म हम कर सकते हैं कि नहीं। बड़ी भारी फैक्टरी तो खोल दी, परन्तु उसके लिए न धन है, न योजना है, न बुद्धि है, न आदमी है। अतः पहले उसका प्रयोजन समझना आवश्यक है। फिर यह देखना चाहिए कि हमारे पास काम करने का सामर्थ्य है कि नहीं, योग्यता है कि नहीं। इसे कहते है अधिकारी का विचार, योग्यता का विचार, क्षमता का विचार। हिन्दी में जो ‘सक्षम’ शब्द चलता है, वह संस्कृत भाषा की दृष्टि से गलत होता है। संस्कृत में सक्षम शब्द है परन्तु वह क्षमाशील के लिए है और समर्थ के अर्थ में केवल ‘क्षम’ है। तो, यह देखो कि अमुक कर्म के लिए हमारी क्षमता कितनी है, क्षमता पर विचार करो। दूसरे, उसके प्रयोजन पर दृष्टि डालो और यह देखो कि अमुक कर्म करते हुए हम कहाँ पहुँचेंगे? यह नहीं कि हाथ में लठिया उठायी और पानी पीटने लगे। किसी ने पूछा कि यह क्या कर रहे हो? तो बोले- यह मत पूछो। हम कोई सकाम कर्म थोड़े ही करते हैं, निष्काम कर्म कर रहे हैं। भाई, निष्काम कर्म का अर्थ निरर्थक पानी पीटना नहीं होता, वह तो सप्रयोजन, लोकोपकारी, विश्वात्मा परमात्मा की सेवा के लिए होता है आजकल ऐसे-ऐसे निष्कामकर्मी पैदा हो गये हैं जिनके बच्चों की पलटन खड़ी हो जाये। उनसे पूछो कि इतने बच्चे कैसे हो गये तो बोलेंगे कि निष्काम भाव से। दुकान पर बैठते हैं। छल से, कपट से, बेइमानी से, धोखा देकर ग्राहको की गाँठ काटते हैं और कहते हैं कि हम तो निष्काम भाव से करते हैं। ऐसे निष्काम भाव से तो सावधान रहना चाहिए। कर्म के पीछे काम संकल्प, भोग संकल्प नहीं होना चाहिए। परन्तु अपनी योग्यता का, क्षमता का, प्रयोजन का विचार अवश्य होना चाहिए। तीसरे, उस कर्म की क्या रूपरेखा होगी, इस पर भी विचार होना चाहिए। चौथी बात है कर्म के परिणाम अथवा उसकी परिणति पर विचार। प्रत्येग कर्म का परिणाम होता है, उसकी परिणति होती है। कर्म हमें एक स्थान पर पहुँचाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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