सपना वर्मा (वार्ता | योगदान) ('<div class="bgmbdiv"> <h3 style="text-align:center">'''गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो (Text replacement - ""background:transparent text-align:justify "" to ""background:transparent; text-align:justify;"") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
<div class="bgmbdiv"> | <div class="bgmbdiv"> | ||
<h3 style="text-align:center">'''गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज'''</h3> | <h3 style="text-align:center">'''गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज'''</h3> | ||
− | {| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent | + | {| width=100% cellspacing="10" style="background:transparent; text-align:justify;" |
|- | |- | ||
− | | [[चित्र:Prev.png|left|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 352]] | + | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Prev.png|left|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 352]] |
| | | | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 2'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 2'''</div> | ||
− | + | भगवान कहते हैं कि यदि तुम फल पर ही दृष्टि रखोगे तो पराधीन हो जाओगे। फल पराधीन है, कर्म स्वाधीन है। जो तुम कर सकते हो वह करो। कोई बीमार है। वह मरे नहीं, यह आपके हाथ में नही है। यदि आप यह चाहते हैं कि वह कभी नहीं मरे तो [[शास्त्र]] के विपरीत इच्छा करते हैं। वह एक-न-एक दिन मरेगा और आपको दुखी होना पड़ेगा। तो कर्म कीजिए। [[कर्म]] करना, कर्तव्यपालन करना आपका [[धर्म]] है; परन्तु उसका फल समाज के हाथ में छोड़िये। | |
− | प्रसंगवश एक बात सुना देता हूँ। जो वर्तमान ‘हिन्दू’ शब्द है, यह किसी जाति का वाचक नहीं। ‘हिन्दू’ जाति नहीं होती, जाति तो मनुष्य होती है। | + | प्रसंगवश एक बात सुना देता हूँ। जो वर्तमान ‘हिन्दू’ शब्द है, यह किसी जाति का वाचक नहीं। ‘हिन्दू’ जाति नहीं होती, जाति तो मनुष्य होती है। '''आकृतिग्रहणाज्जतिः''' है। आपको देखकर कौन बता सकता है कि आप किस जाति के हैं? किन्तु मनुष्य जाति से सब परिचित हैं। हिन्दू शब्द किसी विशेष सम्प्रदाय का भी वाचक नहीं, न शांकर सम्प्रदाय का, न रामानुज सम्प्रदाय का और न किसी अन्य सम्प्रदाय का। जो किसी एक आचार्य के द्वारा प्रवृत्त होता है, उसका नाम सम्प्रदाय होता है। जैसे मोहम्मदीय सम्प्रदाय है, बौद्ध सम्प्रदाय है जैन सम्प्रदाय है। अब आप बतलाइये कि हिन्दुत्व का प्रचलन किसने किया ? इस पर बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हो चुके हैं। सर्वसाधारण को मालूम नहीं। |
− | अच्छा, आपको यदि हित करना हो तो क्या आप चाहते हैं कि आप पराधीन न हो, काम करके मूर्ख न बनें, दुःखी न हों। हम सीधी-सीधी बात कर रहे हैं। पराधीन होना मूर्ख होना है। | + | जब श्री बिरलाजी ने अपनी संस्था का नाम ‘आर्यधर्म -सेवा संघ’ रखा, तब [[काशी]] में यह विचार हुआ कि ‘हिन्दूधर्म-सेवा संघ नाम रखा जाय। जब काशी में पण्डितों ने वर्णाश्रम-संघ की स्थापना की तो इस पर विचार हुआ कि वर्णाश्रम संघ नहीं, ‘हिन्दूसंघ’ नाम रखा जाय। करपात्री जी ने मेरे सामने ही धर्मसंघ बनाया। विद्वानों ने बहुत विचार किया कि हिन्दू धर्म नाम क्यों न रखा जाय। किन्तु कोई शास्त्रीय आधार नहीं मिला। तो हिन्दू न जाति है, न सम्प्रदाय। यदि चोटी वाले का नाम हिन्दू तो बिना चोटी संन्यासी लोग भी तो हिन्दू होते हैं। तो क्या जनेऊ वाला हिन्दू है? नहीं, नहीं, बिना जनेऊ के भी हिन्दू होते हैं। उसका लक्षणार्थ यही है कि एक समाज भिन्न-भिन्न आचार भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न - भिन्न सम्प्रदाय और भिन्न-भिन्न प्रकार से रहने वाले समुदाय का नाम हिन्दू है। इसके अतिरिक्त यह न जाति है, न सम्प्रदाय, न वर्ग है और न लिंग ही है। |
− | | | + | |
− | [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 354]] | + | अच्छा, आपको यदि हित करना हो तो क्या आप चाहते हैं कि आप पराधीन न हो, काम करके मूर्ख न बनें, दुःखी न हों। हम सीधी-सीधी बात कर रहे हैं। पराधीन होना मूर्ख होना है। [[भगवान श्रीकृष्ण]] कहते हैं- बाबा, तुम [[कर्म]] के आश्रय हो, कर्म के कर्ता हो। बुद्धि से कर्म तो तुम करो, लेकिन तुमको फल के अधीन न होना पड़े, इसका ध्यान रखो। चोरी-बेईमानी अकार्य है। हिंसा अकार्य है। व्यभिचार-अनाचार अकार्य है। यह अकार्य तुम मत करो, लेकिन कार्य करों। |
+ | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 354]] | ||
|} | |} | ||
</div> | </div> |
01:05, 1 जनवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
भगवान कहते हैं कि यदि तुम फल पर ही दृष्टि रखोगे तो पराधीन हो जाओगे। फल पराधीन है, कर्म स्वाधीन है। जो तुम कर सकते हो वह करो। कोई बीमार है। वह मरे नहीं, यह आपके हाथ में नही है। यदि आप यह चाहते हैं कि वह कभी नहीं मरे तो शास्त्र के विपरीत इच्छा करते हैं। वह एक-न-एक दिन मरेगा और आपको दुखी होना पड़ेगा। तो कर्म कीजिए। कर्म करना, कर्तव्यपालन करना आपका धर्म है; परन्तु उसका फल समाज के हाथ में छोड़िये। प्रसंगवश एक बात सुना देता हूँ। जो वर्तमान ‘हिन्दू’ शब्द है, यह किसी जाति का वाचक नहीं। ‘हिन्दू’ जाति नहीं होती, जाति तो मनुष्य होती है। आकृतिग्रहणाज्जतिः है। आपको देखकर कौन बता सकता है कि आप किस जाति के हैं? किन्तु मनुष्य जाति से सब परिचित हैं। हिन्दू शब्द किसी विशेष सम्प्रदाय का भी वाचक नहीं, न शांकर सम्प्रदाय का, न रामानुज सम्प्रदाय का और न किसी अन्य सम्प्रदाय का। जो किसी एक आचार्य के द्वारा प्रवृत्त होता है, उसका नाम सम्प्रदाय होता है। जैसे मोहम्मदीय सम्प्रदाय है, बौद्ध सम्प्रदाय है जैन सम्प्रदाय है। अब आप बतलाइये कि हिन्दुत्व का प्रचलन किसने किया ? इस पर बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हो चुके हैं। सर्वसाधारण को मालूम नहीं। जब श्री बिरलाजी ने अपनी संस्था का नाम ‘आर्यधर्म -सेवा संघ’ रखा, तब काशी में यह विचार हुआ कि ‘हिन्दूधर्म-सेवा संघ नाम रखा जाय। जब काशी में पण्डितों ने वर्णाश्रम-संघ की स्थापना की तो इस पर विचार हुआ कि वर्णाश्रम संघ नहीं, ‘हिन्दूसंघ’ नाम रखा जाय। करपात्री जी ने मेरे सामने ही धर्मसंघ बनाया। विद्वानों ने बहुत विचार किया कि हिन्दू धर्म नाम क्यों न रखा जाय। किन्तु कोई शास्त्रीय आधार नहीं मिला। तो हिन्दू न जाति है, न सम्प्रदाय। यदि चोटी वाले का नाम हिन्दू तो बिना चोटी संन्यासी लोग भी तो हिन्दू होते हैं। तो क्या जनेऊ वाला हिन्दू है? नहीं, नहीं, बिना जनेऊ के भी हिन्दू होते हैं। उसका लक्षणार्थ यही है कि एक समाज भिन्न-भिन्न आचार भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न - भिन्न सम्प्रदाय और भिन्न-भिन्न प्रकार से रहने वाले समुदाय का नाम हिन्दू है। इसके अतिरिक्त यह न जाति है, न सम्प्रदाय, न वर्ग है और न लिंग ही है। अच्छा, आपको यदि हित करना हो तो क्या आप चाहते हैं कि आप पराधीन न हो, काम करके मूर्ख न बनें, दुःखी न हों। हम सीधी-सीधी बात कर रहे हैं। पराधीन होना मूर्ख होना है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- बाबा, तुम कर्म के आश्रय हो, कर्म के कर्ता हो। बुद्धि से कर्म तो तुम करो, लेकिन तुमको फल के अधीन न होना पड़े, इसका ध्यान रखो। चोरी-बेईमानी अकार्य है। हिंसा अकार्य है। व्यभिचार-अनाचार अकार्य है। यह अकार्य तुम मत करो, लेकिन कार्य करों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज