गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
कर्म प्रधान जीवन है युवा का और शान्ति प्रधान जीवन है वृद्ध का। आप कर्म कीजिए, परन्तु यदि आप वृद्ध हैं तो आप में शान्ति अधिक होनी चाहिए और युवा हैं तो आपमें शान्ति सहित कर्म अधिक होना चाहिए। यदि जीवन को बुद्धि पूर्वक नहीं व्यतीत किया जायेगा तो वह मरण के समान हो जायेगा। योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते। इसमें जो ‘योगारूढ़’ शब्द है, यह लोक में परिचित नहीं है। रथारूढ़, अश्वारूढ़ आदि शब्द तो परिचित हैं। अब देखिए कि योगारूढ़ किसको कहते हैं।
इसमें तीन बातें कही हैं। ‘यदा’ शब्द का अर्थ देश अथवा काल नहीं है। यदा शब्द का तात्पर्य है चित्तवृत्ति की वह दशा, जिसमें मन परिवर्तित हो जाये। असल में परिवर्तन मन में होता है। तो, योगारूढ़ के मन में तीन बात आनी चाहिए। एक तो कर्मसक्ति न हो, दूसरे भोगासक्ति न हो और तीसरे अपने संकल्पों पर काबू रखने की शक्ति हो। अब इन पर ज़रा विस्तार से विचार करें कर्म करने और कर्मासक्ति में फ़र्क है। इसी प्रकार भोग करने और भोगासक्ति में भी फर्क है। हमारे एक मित्र हैं। जो हमसे बड़ी ईमानदारी से बात करते हैं। उनकी स्त्री चल बसीं। पुत्र भी नहीं, पुत्री भी नहीं। कोई भी उत्तराधिकारी नहीं है। हमसे मिलने के समय उनके पास बीस हज़ार रुपये थे, फिर बीस लाख हुए, पाँच करोड़ हुए, अब कितने हैं, नहीं बताते। दिन भर कमाई में लगे रहते हैं। कहते हैं महाराज काम किये बिना मन नही मानता, पर मैं किसलिए इकट्ठा कर रहा हूँ यह समझ में नहीं आता। वे दान नहीं करते, परोपकार का काम नहीं करते, विद्यालय नहीं बनाते, ग़रीबों को नहीं बाँटते केवल इकट्ठा कर रहे हैं। उसमें भी जो बिना हिसाब का है, वह बड़ा दुःखदायी है। वे कहते है कि मैं तो कर्म के साथ ऐसे सट गया हूँ, चिपक गया हूँ कि उसको छोड़ नहीं सकता। यह हुई कर्मासक्ति। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6.4
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