गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 1
जब हम गीता पर दृष्टि डालते हैं कि - धृतराष्ट्र को क्या मिला? उन्होंने गीता सुनी कि नहीं सुनी, समझी कि नहीं समझी, इससे कोई लाभ उठाया या नहीं उठाया, इसकी तो कोई चर्चा ही नहीं है। एक बार उन्होंने प्रश्न किया और संजय ने अपने आनन्द के लिए पूरी गीता सुना दी। गीता सुनाते वक्त संजय को बड़ा आनन्द आया। .........संवादमिममद्भुतम् केश्वार्जुनयो: पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुह: ॥[1] यह केशव और अर्जुन का परम पवित्र, परम पावन संवाद है। मैंने स्वयं अपने कानों से सुना है - ‘व्यासप्रसादात् श्रुतवान्’। हमारे गुरुजी व्यासजी की कृपा। मैं बैठा था धृतराष्ट्र के पास और सुन रहा था कुरुक्षेत्र में होने वाला संवाद और संवाद ही नहीं सुना, श्रीकृष्ण का विराट रूप भी देखा - तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रुपमत्य्भ्दुतं हरे:। वह विराट रूप देखकर मेरे मन में विस्मय हुआ। विस्मय हुआ माने अहंकार की निवृत्ति हो गयी। ‘स्मय’ शब्द का अर्थ संस्कृत में अहंकार होता है। अतः विस्मय का अर्थ हुआ - विगत-स्मयः। मैंने सब देखा है, सब जाना है परन्तु ऐसा रूप तो कभी नहीं देखा था, नहीं सुना था, नहीं जाना था। एक अकल्पित अननुभूत पदार्थ के दर्शन से जैसे आश्चर्य होता है, वैसे संजय को आश्चर्य और आनन्द हुआ है। महापुरुष अपनी शान्ति, अपने आनन्द में मग्न रहकर ही सब काम करते हैं। अर्जुन को क्या मिला? धृतराष्ट्र जो अज्ञान से ग्रस्त है, ममता से ग्रस्त है, अविवेक से ग्रस्त है, बाहर-भीतर दोनों की फूटी है, अन्धा है, एक पदार्थ को पकड़कर-जकड़कर बैठा है, उसे कुछ नहीं मिला। संजय जीवन्मुक्त महापुरुष है। इसलिए उन्हें कुछ चाहिए नहीं। उनके मन में कुछ इच्छा नहीं है। भगवान की गीता दुहरा-दुहराकर उसका आनन्द लेते हैं। ‘संस्मृत्य संस्मृत्य’ - बारम्बार-बारम्बार श्रीकृष्ण का रूप आता है और अर्जुन का संवाद आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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