गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 4
कहना यह है कि हम अपने जीवन में कितने संवेदनशील हो गये हैं - क्षण में रोना, क्षण में हँसना। क्षण में रोष, क्षण में तोष। कहीं एक स्थिति तो चाहिए न! स्थिरता चाहिए। एक स्थायी भाव चाहिए। स्थायी भाव सुख में नहीं होता है और दुःख में भी स्थायी भाव नहीं होता है। थोड़ी देर के लिये सुख में, थोड़ी देर के लिए दुःख में स्थिर हो जाते हैं। दोनों के परे जो अपना स्वरूप है, जो सुख के समय सुखी होता है, दुःख के समय दुःखी होता है और दोनों में-से एक होने से दोनों से न्यारे होता है, उस पर ध्यान नहीं जाता। यदि हम अपने को इसमें स्थिर कर लें कि - सुख आता है जायेगा, दुःख आता है जायेगा; कोई चीज दुनिया में स्थिर रहने वाली चीज नहीं है। हमारा जो आत्मा है अजर है, अमर है, अचल है, स्थाई है। शेष सब तो सिनेमा के परदे पर जैसे आते हैं वैसे आते हैं। ऐसा समझ लें तो, सुख-दुःख का जितना असर आप अपने ऊपर ले लेते हैं, उतना नहीं पड़ेगा। भगवान ने यहाँ एक दूसरी ही ओर हमारी दृष्टि खिंची है। आप यह मत देखिये कि सुख कैसे आया। यह भी मत देखिये कि दुःख कैसे आया। देखने की वस्तु यह है कि सुख-दुःख देने वाला कौन है? हमारी माँने एक दिन रबड़ी-मलाई खिलायी। बहुत खुशी हुई। पर एक दिन उसने कहा कि आज खाने को कुछ नहीं मिलेगा। सिर्फ सूप पियो। आज तुम्हें रोटी नहीं मिलेगी। जब माँ कह रही है कि आज रोटी खाना ठीक नहीं है। उसका कितना प्रेम होगा, उसका कितना हित होगा। क्या खिलाया जा रहा है यह मत देखो - खिलाने वाला कौन है यह देखो। जब खिलाने वाले पर नजर जायेगी तब आप देखेंगे कि वह आपका इतना हितैषी है - इतना प्रेमी है कि वह आपको खिलाता है, तब भी आपके हित के लिए और आपको भूखा रखता है तब भी आपके हित के लिए। देने वाले पर नजर जानी चाहिए। इस प्रसंग में श्रीकृष्ण ने हमारी नजर खींची है - सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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