गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-7 : अध्याय 10
प्रवचन : 3
सुखं दुखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च। सुख, दुःख दोनों में ‘ख’ है। एक चीज ऐसी है जो सुख में है और दुःख में भी। वह क्या है? वह है ‘ख’। सुख में सु उपसर्ग है और ख धातु है - दुःख में दुः उपसर्ग है और वही का वही है जो दुःख में है। ‘दुष्टं खं यस्मात्’। यह ‘ख’ माने हृदयाकाश। जिस वस्तु के आने से हमारा हृदयाकाश सुन्दर, स्वच्छ, निर्मल हो जाता है उसका नाम है सुख और जिस प्रभाव के आने से हमारा मन प्रदूषित हो जाता है, उसका नाम है दुःख। जैसे आकाश कभी-कभी स्वच्छ होता है तब भी आकाश ही है और आकाश में कभी आँधी आ गयी, कभी धूल उड़ गयी, कभी गरमी पड़ गयी, कभी सरदी पड़ गयी तब भी आकाश ही है। हमारा हृदय भी एक आकाश है। इसमें कभी बादल आते हैं, कभी धूल उड़ती है - ठीक है लेकिन इसका स्वभाव स्वच्छ है, इसका स्वभाव आकाश के समान निर्मल है। जीवन में जो सुख-दुःख हैं ये घबड़ाने की चीज नहीं है। न सुख पकड़कर रखने की चीज है। न दुःख भगाने की चीज है। यह हमारे हृदय की बनावट के अनुसार आते ही रहते हैं - ये आवें और जायें - नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण। जैसे रथ का पहिया नीचे-ऊपर होता है, वैसे ही सुख-दुःख आते ही रहते हैं। ये जीवन के दो पहलू हैं - इसमें घबराना नहीं चाहिए। ये भगवान की देन हैं। भगवान की विभूति हैं। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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