गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-5 : अध्याय 8
प्रवचन : 8
एक चिड़िया रस्सी से बँधी है इधर उड़ती है, उधर उड़ती है, फड़फड़ाती है, चिल्लाती है परन्तु अन्त में जहाँ बधीं है वहीं आकर बैठती है। वहीं मिलता है उसको विश्राम। ऐसे ही जो मनुष्य का मन है - यह छटपटाता है - यहाँ जाता है - वहाँ जाता है - फिर कहाँ आकर सोता है? एक पतिव्रता पत्नी है, वह भले ही बाजार में सौदा खरीदने के लिए जाय, भले मायके जाय, बहन के घर जाय, लेकिन सोने का स्थान उसका कहाँ है? अपने पति के पास। अपने पति की गोद में। वह दूसरे के साथ नहीं सोती। इसी प्रकार हमारी स्थिति है। चाहे जितना घूम आवें हम दुनिया में, हमारी सोने की जगह ईश्वर है। निद्रा के समय आप कहाँ होते हैं - सति सम्पद्यन्ते - ईश्वर में आकर सो जाते हैं। सेवा एक के उद्देश्य से। सम्बन्ध सारे-के-सारे एक से - ईश्वर से। स्थिति ईश्वर में और ज्ञान ईश्वर का ही। सब स्थिति में ईश्वर है। सब भावों में ईश्वर है। सब कर्मों में ईश्वर है। सब वस्तुओं में ईश्वर है। ईश्वर ही है - दूसरा कोई नहीं है।
अब यदि काल के चक्र में पड़ोगे तो! चक्कर काटते रहोगे या तो बड़ी देर लगेगी वहाँ पहुँचने में। इसलिए न देरवाला मार्ग अपनाओ और न चक्कर काटने वाला। दोनों से वैराग्य करने के लिए है यह आठवाँ अध्याय। शुक्ल या उत्तरायणमार्ग से जाने का वर्णन करने के लिए नहीं है। बल्कि दोनों से वैराग्य करके अभी-अभी परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए है। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 8.22
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