गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 4
यह कोई दूसरी चीज नहीं है; भगवान की चेष्टा-भगवान का संकल्प ही विश्वसृष्टि के रूप में आया। असल में एक ही चीज है, उसी का नाम है आत्मा और उसी का नाम है भगवान। चाहे आत्मसृष्टि बोलो चाहे भागवत-सृष्टि बोलो। जब दोनों को एक में मिला देते हैं तो उसको ब्रह्म बोलते हैं। ब्रह्म रूप में है यह सृष्टि, और यह चाहे किसी भी रूप में दिखे, मुख्य बात अभय की प्रतिष्ठा का ज्ञान है, इसीलिए कहा है- अभयप्रतिष्ठां विन्दति स एव विद्। प्रलय में भी अभय है, सृष्टि में भी अभय है, भेद की प्रतीति हो तब भी अभय है, हानि में भी अभय है, लाभ में भी अभय है। लोक व्यवहार में परमेश्वर को कैसे देखा जाय इसकी एक युक्ति बताते हैं-
यही उसकी प्रक्रिया है। परमात्मा को देखने का प्रकार यह है-जैसे जल क्या है? जल वह नहीं है जो दो गैसों के मिलने से द्रव रूप में पैदा होता है। वह तो मशीनी अथवा यान्त्रिक जल है। असल में जल क्या है? जीभ से हमें जो रस-ग्रहण होता है वह विलक्षण है। आँख से हम रूप देखते हैं, त्वचा से स्पर्श करते हैं, नाक से गन्ध सूँघते हैं, कान से शब्द सुनते हैं और जीभ से रस लेते हैं, रसनाग्राह्य जो गुण है उसका नाम होता है रस और उस रसात्मक रस-तन्मात्रा से जो बनता है, उसको कहते हैं जल। इसीलिए कहा-रसोऽहमप्सु कौन्तेय। परमात्मा रस है। वह रसात्मक जल में ओत-प्रोत है। ओत-प्रोत का अर्थ होता है उसी प्रकार मिला हुआ जैसे कपड़े में सूत और सूत में ताना-बाना। जैसे कपड़े में ताना भी सूत है और बाना भी सूत है। आड़ा भी सूत है और खड़ा भी सूत ही है। उनके विन्यास से तरह-तरह की डिजाइनें बन जाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक-7.8
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