गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 8
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:। कहते हैं कि जो सर्वभूतों में केवल प्राणी ही नहीं, प्राणी-अप्राणी दोनों रूपों में, चेतन और जड़के रूप में, चर और अचर के रूप में कार्य और कारण के रूप में, दृश्य और द्रष्टा के रूप में भोग्य और भोक्ता के रूप में, मालूम पड़ता है वही परमात्मा है। भक्त लोग भोक्ता और दृश्य को पकड़ते हैं तथा योगी लोग द्रष्टा और दृश्य को पकड़ते हैं। कुछ भी कहो जो सबमें एक है, उसी का नाम परमात्मा है। तो, एक हो जाओ और एक होकर- भजत्येकत्वमास्थितः। अब बड़े मुद्दे की बात बताते हैं- सर्वथा वर्तमानोऽपि। अर्थात आप ब्राह्मचारी के रूप में, रहिए, गृहस्थ के रूप में रहिये, व्यापारी के रूप में रहिये, त्यागी के रूप में रहिये, राजा जनक की तरह राज्य कीजिए, वसिष्ठ की तरह पुरोहिती कीजिए। दत्तात्रेय की तरह विरक्त रहिये, शुकदेव के समान परमहंस रहिये, कृष्ण के समान लीला पुरुषोत्तम रहिये अथवा राम के समान मर्यादा पुरुषोत्तम, आपका व्यवहार, बर्ताव, वर्तना चाहे जैसा भी हो; आप परमात्मा में स्थित हैं तो स योगी मयि वर्तते। अतः आप व्यवहार को मत देखो आत्मा को, परमात्मा को देखो। जल छलक रहा है या शान्त है, उसमें बाहर की मिट्टी मिल गयी है या बिलकुल स्वच्छ है- यह मत देखो। जल को जलत्वेन देखो। जल रूप से जल को देखो। सर्वथा वर्तमानोऽपि - यह बात भगवान को बहुत पसन्द है। निरुक्त में व्याख्या का एक नियम बताया गया है- अभ्यासेन भूयांशमर्थ मन्यन्ते मीमांसकाः। अर्थात जब कोई बात दो बार कह दी जाती है तो उससे एक महान अर्थ की सूचना मिलती है। गीता में कई वाक्य ऐसे हैं जो बार-बार आये हैं। तेरहवें अध्याय में सर्वथा वर्तमानोऽपि और एक बार छठें अध्याय में आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज