गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 12
या तो आपके भूत लगा हुआ है अर्थात् भूतकाल की बातें आपके दिमाग में अधिक रहती है- जैसे कोई आदमी रास्ते में चल रहा है और उसका पाँव पीछे की ओर फिसल जाये तो वह गिर पड़ता है, वैसे ही भूतकाल की बातें जब ज्यादा याद आती हैं तो आदमी को गिरा देती है और जब आदमी का पाँव आगे की ओर ज्यादा फिसल जाता है तब भी वह गिर पड़ता है। इसलिए मन पर भूत, भविष्य की बातों का बोझ लेकर मत चलिये। मोह के दल-दल में मनुष्य पाँव फँसता है। भय की कल्पना से मनुष्य शोक करने लगाता है। लेकिन जब भगवान की भक्ति आती है तब न भूत का शोक होता है, न भविष्य का भय होता है और न वर्तमान का मोह होता है। उस समय हमारा हृदय अपने में ही विद्यमान ईश्वर को पकड़कर आनन्द से भरपूर हो जाता है। इसी श्रीमद्भागवत और दूसरे शास्त्रों का कहना है कि आप श्रवण कीजिये। श्रवण के साथ-साथ हमारी वाणी भी भगवान के गुण वर्णन करे- दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनोश्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः। भक्त लोग कहते हैं कि हमको मोक्ष नहीं चाहिए। महात्मा लोग कहते हैं- ‘मोक्षेणारसिकेन किम्।’ उस मोक्ष को लेकर हम क्या करेंगे जो मरने बाद मिलता हो। हमको तो वह मोक्ष चाहिए। जिससे इसी समय हमें परमानन्द का अनुभव हो। हम सत्य से वंचित न रहें - ‘असतो मा सद्गमय।’ हम अन्धकार में न भटकें- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ और हम मृत्यु के फन्दे में न रहें, इसी जीवन में अमृतत्त्व को प्राप्त करें। तो- ‘न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते।’ हमें मोक्ष भी नहीं चाहिए, अपवर्ग भी नहीं चाहिए। यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट्सकृददन विधूतद्वन्द्व धर्मा विनष्टाः। भगवान के चरित्र की एक बूँद, एक फुहिया, एक सीकर, जब कान में पड़ती है तो मनुष्य का मन परम पवित्र, परम पावन होकर एक अखण्ड आनन्द में, परमानन्द में डूब जाता है। और जब आपके हृदय में परमानन्द प्रकट हो गया तो आनन्दपूर्वक बोलिये, आपके बोलने से आनन्द बरसेगा। आप आनन्द से स्पर्श कीजिये। आपके हाथ में से आनन्द के झरने बहेगे। आप जहाँ-जहाँ चलेंगे वहाँ-वहाँ पृथ्वी आनन्दित होगी। आप जो-जो करेंगे, वह लोगों के लिए आनन्द का उद्गम होगा, उत्स होगा, स्रोत होगा। इसलिए अपने हृदय में भगवान को, भगवान की भक्ति को, भगवान की प्रीति को बैठा लीजिये। आपके समस्त कर्म-कलाप से, यहाँ तक कि आपकी साँस से भी प्रेम और आनन्द की वर्षा हो, इसी नाम भक्ति है। भक्ति आपके हाथ से भी हो, आपके पाँव से भी हो, आपकी वाणी से भी हो। यही भक्ति का स्वरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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