गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 12
आप कोई भी काम करें तो उसमें शरीर में हस्तपादादि का संचालन तो होता ही है। कहीं हाथ हिलता है, कहीं पाँव हिलता है, कहीं जीभ हिलती है। तो शरीर में हिलना रूप जो कर्म हो रहा है इसमें क्या श्रेष्ठ है और क्या कनिष्ठ है, इसका विचार नहीं है। एक आदमी हाथ से सफाई कर रहा है, एक मशीन चला रहा है। एक शास्त्र लिख रहा है, एक सेवा कर रहा है। देखना यह है कि जो कर्म वह कर रहा है, किसलिए कर रहा है? स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः। गीता कहती है कि अपने कर्म से उस परमेश्वर की आराधना करो। तुम जो कर्म कर रहे हो, वह केवल परमेश्वर की अर्चना के लिए हो। चलते समय भी यह ख्याल रखो कि तुम्हारे पाँवों की ध्वनि ईश्वर को कर्कश न लगे। तुम्हारे बोलने की अवाज ईश्वर को कटु न लगे। जो भी काम करो इतनी सुन्दरता से अपने प्यारे ईश्वर के लिए करो कि वह मुग्ध हो जाये। हम जैसे टेलीफोन पर बात करते हैं। जब अपने मित्र का टेलीफोन होता है तो मीठी आवाज में बात करते हैं और जो पसन्द नहीं होता, उसको डाँट देते हैं। अपना मित्र खाने बैठा हुआ हो तो हँस-हँसकर उसको खिलाते हैं और यदि अपना मित्र न हो तो उपेक्षा से, बहुत गम्भीर होकर शिष्टाचारवश उसको खिलाते हैं। असल में सभी तो तुम्हारे प्यारे हैं। तुम्हारे घर में जो भी जिस किसी भी रूप में आया है, वह तुम्हारे प्यारे के रूप में ही तो होता है। तो, भक्ति का स्वभाव है, स्वरूप है कि, स्वकर्मणा अपने कर्मके द्वारा ‘तमभ्यर्च्य’ ईश्वर की अभ्यर्चा कीजिये। अब ऐसा कर्म करने का अधिकारी कौन है इस पर विचार कीजिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अथवा बौद्ध, जैन, मुसलमान और ईसाई इनमें-से उस कर्म को करने का अधिकारी कौन है? भक्ति का जो स्वरूप आपको बताया गया है वैसी भक्ति कौन करे? इसका समधान भगवान करते हैं कि देखो कर्ता के साथ कोई विशेषण अथवा उपाधि लगाने की जरूरत नहीं। ‘सिद्धिं विन्दति मानवः’ यह कर्म मानव के लिए है। भगवान की आराधना की, भक्ति की, पूजा की यह पद्धति मनुष्य मात्र के लिए है। यहाँ अधिकारी अनाधिकारी का कोई प्रश्न नहीं। श्रीमद्भागवत, उपनिषद् गीता, सब-के-सब बताते हैं, कि सब कुछ भगवान का ही स्वरूप है। ‘सव खल्विंदं ब्रह्म। सद् हि इदं सर्वम्। चिद् हि इदं सर्वम्। आत्मैवेदं सर्वम्। स एवेदं सर्वम्। अहमेवेदं सर्वम्। ब्रह्मैवेदं सर्वम्।’ श्रुतियाँ घोषणा करती है कि सबके रूप में परमात्मा ही है। गीता भी यही कहती है- सर्व समाप्रोषि ततोऽसि सर्वः। मया ततमिदं सर्वम्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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