गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 5
मन का देवता चन्द्रमा है और अन्न रसमय है। वही मन में, विचार करने की, अनुमान करने की, देखने की शक्ति देता है। आँख से देखा जाता है। मन से ध्यान किया जाता है और जहाँ आँख और मन दोनों की गति नहीं होती उसको बोलकर समझाया जाता है। वाणी प्रमाण वहाँ होती है-जो वस्तु नित्य परोक्ष हो, जैसे हम स्वर्ग का वर्णन सुनते हैं, बैकुण्ठ का वर्णन सुनते हैं। गोलोक, साकेत लोक, शिवलोक आदि का वर्णन सुनते हैं, उनको कोई चाहे कि हम आँख से देख ले तो नहीं देख सकता। वह प्रत्यक्ष, अनुमान इन प्रमाणों के विषय नहीं है। तब उनको हम कैसे जान सकते हैं? उनको जानने के लिए शास्त्र प्रमाण की आवश्यकता होती है। यहाँ बता दिया कि शास्त्र से भी बोल-बोल कर जो समझावेंगे उसकी भी वहाँ तक गति नहीं है तब वह है कौन? यह है ‘चक्षुषः चक्षु।’ वह है आँखों की आँख। वह है ‘मनसो मनः।’ मन-का-मन और वह है ‘वाचो वाचं। वाणी-की-वाणी। माने उसको देखने के लिए यदि बाहर जाना हो तो आप आँख से देख सकते। या देखी हुई चीजों के सहारे मन से सोच सकते। या जीभ से बोलकर बता सकते,यह मेज है, यह कुर्सी है कि इस तरह ईश्वर को भी जान सकें। लेकिन वह तो इनके पीछे है। वह कहाँ है? आँख से पीछे बैठकर झाँक रहा है, मन से पीछे बैठकर मन को विचार करने की शक्ति दे रहा है। वहीं जीभ के पीछे बैठकर जीव को बोलने की शक्ति दे रहा हैं कान अलग-अलग हैं, त्वचा अलग-अलग हैं, आँख अलग-अलग है, नासिका अलग-अलग हैं, अपने-अपने विषय को देखते हैं ये बाहर; परन्तु इनमें जो रोशनी देने वाला भीतर है, वह परमात्मा है। यदि उससे एक बार साक्षात्कार हो जाय तो वह फिर भूल नहीं सकता। यह नहीं कि फिर हम अपने को शरीर मान लेंगे। एक बार एक महात्माने मेरे ऊपर कृपा की। उनको श्रीमद्भागवत अच्छा नहीं लगात था। उनके लिए बहुत अप्रिय ग्रन्थ था। थे बहुत अच्दे महात्मा। मैंने प्रार्थना की कि आप एक बान थोड़ा-थोड़ा मुझसे सुन लीजिये। उन्होंने घण्टे भर का समय दिया। मैं बीस वर्ष का था। मैंने पहले उनको ग्यारहवाँ स्कन्ध सुनाया। फिर सातवाँ स्कन्द सुनाया, उसके बाद रासपंचाध्यायी सुनायी। बड़े प्रसन्न हुए। था तो उनके पास कुछ नहीं, एक खण्ड हर में रहते थे। उन्होंने बुलाया कि आओ, मै तुम्हें दक्षिणा दूँगा। जब एकान्त में मैं उनके पास गया- देखने लगा कि क्या देंगे हमको! बोले बैठ जाओ। मैं बैठ गया। बोले कि नारायण, तुम जीव नहीं हो, आँख से, मन से, वाणी से जो बात जगायी जाती है, जिसका ज्ञान दिया जाता है, वह जड़ होती है। और मन को, वाणी को और इन्दियों को लेकर जो बैठा हुआ है, जीव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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