गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 4
भगवान का धाम माने जिसमें यह सारी दुनिया रह रही है और जिसकी रोशनी में दिख रही है। और गत्वा का अर्थ है त्रात्वा - उसके सम्बन्ध में जो अज्ञान है वही केवल दूर होना है - उसके पास जाना नहीं है। बल्कि वह तो हमेशा मिला हुआ अपना आत्मा ही है। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। गम धातु का अर्थ भी होता है। गत्वा का अर्थ है अधिगत्य अधिगम प्राप्त करके अवगत्य-अवगत्य प्राप्त करके जिसके जानने मात्र से - आपको रसोई बनानी हो तो पकानी हो तो पकानी पड़ेगी। अन्न पैदा करना हो तो खेती करनी पड़ेगी। दूसरे के घर से कोई चीज लेनी हो तो उधार लेना पड़ेगा। कच्ची चीज होगी तो उसे पकानी पड़ेगी। लेकिन यह परमात्मा ऐसा है कि न तो इसको कहीं से उधार लेना है, न पैदा करना है, न पकाना है, न इसको सँवारना - यह तो आपका अपना आत्मा ही है। इसलिए इसको जब जान लेते हैं कि यह मैं ही हूँ। यदि आप दूसरे को जानोगे तो उससे प्रेम करना पड़ेगा या नफरत करनी पड़ेगी। उसको पाना पड़ेगा, उसके लिए कुछ करना पड़ेगा। लेकिन अपने आपको यदि जानोगे तो क्या उसके पास जाना पड़ेगा? क्या उसको पकड़कर रखना पड़ेगा? क्या उसको कहीं से लेना पड़ेगा। यह परमात्मा ऐसा धाम हैं कि इसको कोई जान ले-उपनिषदों में केवल आत्मा शब्द से ही इसका वर्णन है। आत्मा माने अपना आपा। परमात्मा शब्द का सीधा प्रयोग दस उपनिषदों में कही भी नहीं है। आत्मा ही परमात्मा है, आत्मा ही ब्रह्म है। यह बात पहले के महात्मा लोग जानते थे। यही भगवान का परम धाम माने परम स्वरूप है। भगवान रहते कहाँ हैं? आप में - आपके रूप में भगवान रोशनी कहाँ से देते हैं? आपके रूप से, आप से सम्पूर्णं विश्व को प्रकाशित करते हैं। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम। अब ये परम धाम क्यों है? इसके लिए आगे का प्रसंग बताते हैं। देखो इस धाम को जान लोगे - मेरे स्वरूप के रूप को तो आना - जाना छूट जायेगा और नहीं जानोगे तो इस संसार का बोझा लेकर विषयों के साथ फँसकर भटकना पड़ेगा और दुःखी होना पड़ेगा, इसलिए भगवान अगले प्रसंग में अपने स्वरूप का निरूपण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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