गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-13 : अध्याय 16
प्रवचन : 2
एक बार हम लोग एक महात्मा का दर्शनकरने गये। महात्माजी की उम्र 90 वर्ष की थी। और कपड़ा पहनते नहीं थे। घास पर ही बैठते थे। ऐसे जीवन व्यतीत करते उनको 50 वर्ष हो चुके थे। नर्मदा की घाटी में उन्होंने अपना साधन का जीवन व्यतीत किया था। हम लोग जाकर घास पर बैठे, वे भी दूब पर बैठ हुए थे। हमारे साथी ने दूब नोंचना शुरू किया। जैसे किसी भले लोगों को भी आदत होती है, किसी के घर में कालीन पर बैठे तो धीरे-धीरे उसके रेशें नोचने लगते हैं। बच्चे भी नोचते हैं, बड़े भी नोचते हैं। बाबा ने कहा - यह कया करता है? इस दूब को गाय खायेगी। दूब घास है, गाय खायेगी तो दूध बनेगा। मनुष्य पीयेगा तो मनुष्य बनेगा। अब तो यह दूब मनुष्य योनि में आने के लिए बिलकुल तैयार बैठी है और तू नोचकर फेंक देगा तो यह फिर मिट्टी की मिट्टी हो जायेगी। किसी भी हरे-भरे पौधे को काटकर उसे मिट्टी बना देगा। यह तो बढ़िया बात नहीं है। लेकिन खासकर यह अश्वत्थ वृक्ष जो है, जिसमें हम वासुदेव की पूजा करते हैं, ‘पत्रे-पत्रे च वासुदेवः वासुदेव नमोस्तुते’ - जिसके पत्ते-पत्ते में वासुदेव हैं, उसको हम काटे क्यों? ठीक है - यहाँ काटने का जो शस्त्र बताया गया है, वह बड़ा विलक्षण है, वह तो कहते हैं, इसको छूओ मत-असंग-शस्त्रेण - न छूना ही इसको काटना है। स्पर्श मत करो, दूर से प्रणाम कर लो, दूर से जल चढ़ा दो। पीपल पर चढ़ाकर बैठो मत, उसको अपने अंग में मत भरो, गोद में मत लो, छोड़ने की वस्तु है। असंगशस्त्रेण दृढ़न छित्त्वा। आप किसी वस्तु के साथ चिपकने में आसक्त होने में डरें - कहीं हम फँस न जायँ, कहीं चिपक न जायें, कहीं बन्धन में न पड़ जायँ। ऐसे-ऐस जादू के खेल हैं, आसमान से घड़ियाँ बरसती हैं, और घड़ियाँ इसी धरती पर किसी कम्पनी की बनायी हुई होती है। राख गिरती हुई दिख सकती है, रोली गिरती हुई दिख सकती है। परन्तु वह भस्म, रोली यहाँ की होती है। आप आश्चर्य में न पड़ें - चिड़ियाँ उड़ती हैं, आदमी उड़ जाय तो आदमी उड़ता है तो आश्चर्य नहीं हो जाता। दुनिया में जो आश्चर्य दिखायी पड़ते हैं, यह बड़ा चमकदार हीरा है, यह बड़ा चमकदार सोना, यह सुन्दर स्त्री है, यह पुरुष है, यह मूल्यवान पदार्थ - उनके द्रष्टा का आनन्द लो; परन्तु उनके संग का आनन्द कभी नहीं लेना चाहिए - यह भी न रहेगा दुनिया में, कोई भी ऐस वस्तु नहीं है जो तुम्हारे साथ जायेगी। यहाँ ‘असंगशस्त्रेण दृढे़न छित्त्वा’ का अर्थ है, उसकी आसक्ति में मत फँसो - आसक्ति छोड़कर, उदासीन रूप से यदि तुम व्यवहार करोगे, उदासीन माने उपेक्षा नहीं, असंगता। जीवन के तीन धन हैं। तत्त्व दृष्टि से एकता और हृदय की दृष्टि से समता और व्यवहार की दृष्टि से असंगता। चित्त में शत्रु-मित्र सबके प्रति समता रहे क्योंकि तत्त्व दृष्टि से एक है। और व्यवहार में अपनी आत्मा के सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं है तो कहीं चिपकने की कोई जरूरत ही नहीं है। राम-राम कहते चलो, अपना काम करते चलो। न ऊधो का लेना न माधव का देना। मस्त रो! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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