गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 6
देखो अज्ञान है और- वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । सुख-दुःख की धारा भी प्रकृति में ही है। उस प्रकृति में ‘कारणं गुणसंगोऽस्य’। ये प्रकृति के गुणों में जो संग है, ‘ये मैं हूँ’, ये मेरा है,’ इसी के कारण सद्-असद् योनियों में जन्म होता है। सुख-दुःख, सुख-दुःख की अनुभूति-जन्म-मरण अनुभूति ये सब एक दूसरे को अपना स्वरूप मान लेने के कारण ही होता है। इसका हेतु तादात्म्य है। और असल में वेदान्त की दृष्टि से प्रकृति परमात्मा से भिन्न नहीं होती। एक श्रुति तो कहती है- मायां तु प्रकृतिं विद्धि मयिनं तु महेश्वरम् ।[3] प्रकृति और माया दोनों का एक ही अर्थ है। वेदान्तसूत्र कहता है- प्रकृतिच्श्र प्रतिज्ञादृसटान्तानुपरोधात् ।[4] प्रतिज्ञा और दृष्टान्त के बल से, एक के विज्ञान से सबका विज्ञान हो जाता है, इसलिए प्रकृति भी स्वतन्त्र सत्तावाली कोई वस्तु नहीं है। परन्तु जब तक पुरुषों में और प्रकृति में भेद है तब तक पुरुष अपने स्वरूप को भूलकर प्रकृति से एक हो गया तो प्रकृति के कर्म को अपना कर्म मानने लगा और प्रकृति के भोगों को अपना भोग मानने लगा। लेकिन कर्तापन जो है, कर्तृव्य जो है वह कर्मेन्द्रियों की प्रधानता से है जो कि अन्धी है। और भोग जो हैं वे ज्ञानेन्द्रियों की प्रधानता से हैं, जिनमें ज्ञान की प्रधानता रहती है। इसलिए पुरुष के अत्यधिक निकट होने के कारण ज्ञानेन्द्रियों से होने वाला जो भोग है, उसका पुरुष में आरोप कर दिया और कर्मेन्द्रियाँ पुरुष से थोड़ी दूर पड़ती हैं इसलिए उनका सर्वथा प्रकृति में समारोप कर दिया। इसको देखने के लिए अमानित्वादि साधन-सम्पत्ति हो तो सबसे बढ़िया और उससे तो अद्वैत तत्त्व का ही अनुभव हो जायेगा, परन्तु वह न हो तो उसके लिए और भी साधन हैं अब साधनों की चर्चा आती है तो वह सरल हो जायेगी। परमात्मा की चर्चा तो थोड़ी सर्वसाधारण से अलग होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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