गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रवचन : 2
अब इसके लिए बताया कि हमारे जीवन में जो विकार आते हैं वे सब इसी क्षेत्र के हैं, तो क्षेत्रों की गिनती कर दी। कितने क्षेत्र हैं और उनका स्वभाव है, अव्यक्त से बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्र, इनकी उत्पत्ति का क्रम जो बना गया। और उसमें विकार बताया इच्छा द्वेष; सुखं दुःखम्। मन में राग होता है कि यह चीज हमको मिलनी चाहिए-इससे बहुत सुख मिलता है। पहले-पहले दिन की याद होती है, इससे हमको बहुत सुख मिलता है तो और चाहिए और इससे दुःख मिलता है तो उससे द्वेष होता है। सुखानुशयी रागः, दुःखानुशयी द्वेषः[1] फिर वर्तमान में सुख-दुःख होते हैं। सुख जो है वह जिसको जैसा अभ्यास हो गया है, उसी के अनुसार होता है। जैसे दक्षिण भारत का हो तो उसको इडली-दोशा मे ही सुख मिलेगा। हम लोगों की रोटी-दाल उसको अच्छी नहीं लगेगी। एक-दो दिन खायेगा, फिर उसको इडली-दोशा खाने की इच्छा होगी। और हम लोग जब दक्षिण भारत में जाते हैं, 2-4 दिन इडली-दोशा मिल जाये तो रोटी-दाल खाने की इच्छा हो जाती है। यह सारा-का-सारा अभ्यास से ही आता है। हमारी जो इच्छाएँ बनती हैं और द्वेष बनते हैं, ये कृतक माने कृत्रिम होते हैं। ये बनाते, बनाते, बन जाते हैं। और उसी से सुख मिलता है। सुख माने जो किसी और वस्तु की प्राप्ति के लिए नहीं होता। आप ध्यान देंगे तब इस बात का रहस्य मालूम पड़ेगा। आपको रुपया चाहिए; क्यों? उससे कोई मकान बनाना है, फैक्टरी बनाना है। कपड़ा लेना है, भोजन करना है। आपको पैसा पैसे के लिए नहीं चाहिए। किसी दूसरे काम के लिए चाहिए। ब्याह भी करते हैं तो सुख के लिए करते हैं। परन्तु सुख किसलिए? असल में सुख वही होता है जो किसी दूसरे के लिए नहीं होता है। सुख अन्तिम अवस्था है और वह अपना आत्मा है। ये जो विकारी सुख होते हैं ये तो अदलते-बदलते हैं। जब आप स्त्री में, पुरुष में सुख मानेंगे, धन-दौलत में सुख मानेंगे, तारीफ सुनने में सुख मानेंगे तो वे विकारी हैं, बदलते हुए होंगे और जो सच्चा सुख है वह तो आपके हृदय की वह स्वच्छता है, जिनमें आप अपने को देख सकते हैं। ‘सु’ माने सुष्ठु और ‘ख’ माने हुदयाकाश। वह हृदय का निर्मल दर्पण जिसमें है। जो किसी की इच्छा का विषय नहीं होता। कोई उसे नहीं चाहता है। हृदय जिससे दुष्ट, दूषित हो जाता है, उसके प्रति द्वेष ही होता है कि यह हमको कभी न हो। और यह संघात बना है शरीर और उसमें चेतना एक नयी बन जाती है। एक चेतन तो नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त है जो परमात्मा-स्वरूप है। जिसके सिवाय और कुछ नहीं और उसका प्रतिबिम्ब पड़ता है माया में और एक चेतन ऐसा है जो अविद्या से लथपथ बन गया है। और एक चेतन ऐसी होती है जो यह शरीर बनने के साथ बनती है और शरीर बिगड़ने के साथ बिगड़ जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ योगसूत्र 2.7-8
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