गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-11 : अध्याय 14
प्रश्न-उत्तर
प्रवचन : 1
और धरती पर आ गया। धरती पर आकर उसने यह नहीं समझा कि मै हिन्दुस्तानी हूँ कि पाकिस्तानी। उसने यह समझा कि मैं समग्र पृथ्वी पर हूँ और पृथ्वी पर रहने वाले सब प्राणी मैं ही हूँ। उसके बाद उसने अपने को जलरूप में अनुभव किया। जल की एक-एक बूँद और जल का एक-एक प्राणी स्वयं मैं हूँ। इसके बाद उसने समग्र तेज के रूप में अपने को अनुभव किया और उसके बाद समग्र वायु के रूप में और उसके बाद समग्र आकाश के रूप में और इस तरह उसकी तत्त्वनिष्ठा हो गयी। आकारनिष्ठा, विकारनिष्ठा-हम तो शकल-सूरत में फँस गये और इसमें जो विकार है उनमें फँस गये और संस्कार करके उनको धोने के लिए चले तो साबुन ही लगा रह गया। उसको छुड़ाया ही नहीं। संस्कारों में ही फँस गये। अब उसने देखा कि संसार में तो लोग अपने शकल-सूरत में अपने व्यक्तित्व में, उसके विकार में, उसके निर्माण में, उसके संस्कारों में फँसे हुए हैं, और सोचते नहीं हैं कि तत्त्व क्या है? तत्त्व तो एक है। अद्वितीय है। जब उसको तत्त्व का अनुभव हुआ तब उसने देखा कि हम जो लोगों के दुःख-सुख की कल्पना करते थे, वह तो हमारा ही मनोविकार था। ब्रह्मलोक में जाने पर भी दुःख की निवृत्ति नहीं हुई। जब तक अपने में पूर्णता का अनुभव नहीं होगा, तो न तो ब्रह्मलोक, न कैलास और न बैकुण्ठ, न गोलोक, न साकेत–इस दुःख को दूर कर सकते हैं। दुःख तब दूर होगा, जब हमारे जीवन में पूर्णता आयेगी और जितनी-जितनी पूर्णता आती जायगी, उतना ही उतना दुःख दूर होता जायगा। पूर्णता ही दुःख को दूर करती है। कभी हम पिछली बात को इतनी पकड़ लेते हैं कि उसके बिना दुःख होने लगता है; कभी हम वर्तमान की बातों को इतना पकड़ लेते हैं कि आह! ये छूट जायँगे तो हम कैसे रहेंगे? कभी भविष्य की कल्पना कर-कर दुःखी होने लगते हैं कि हाय-हाय! भविष्य में क्या होगा? और जब हम पूर्णता में देखते हैं-भूत, वर्तमान, भविष्य, दूर-निकट, अपना-पराया, सबमें जो परिपूर्ण है उसको देखते हैं तो हमारे लिए दुःख नहीं होता है। दूःख से छूटने के लिए अपने क्षेत्र का जो निश्चय है, वह बहुत बड़ा होना चाहिए-‘महाभूतानि-अहंकारो बुद्धिः अव्यक्तम्’ ये पूर्णता की ओर चले गये। पंचमहाभूत है-फिर इनका मूल कारण अहंकार है। जब दुनिया दिखती है तो पहले ‘मैं’ जाग लेता है। ‘मैं’ कहाँ से जागता है? ज्ञान में-से और बुद्धि कहाँ से जागती है? अव्यक्त में-से। यह एक क्रम हो गया। फिर ‘महाभूतान्यहंकारो बुद्धिमव्यक्तमेव च’। फिर इन्द्रियाणि दश एकं च। यह क्षेत्र है। ‘तत्क्षेत्रं यच्च यादृकृ यद्विकारि’-विकार का वर्णन है ही ‘इच्छा द्वेषः सुखं दुखं संघातश्चेतना धृतिः’ ये विकार हैं उसके। लेकिन क्षेत्र का स्वभाव विकारी है इसलिए चाहे इनको मानो स्वभाव और चाहे विकार, क्षेत्र विकारी तो है ही। अपने निर्विकार स्वरूप का अनुभव करने के लिए क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विवेक से जो तत्त्वज्ञान होता है, वह ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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