गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-10 : अध्याय 13
प्रवचन : 4
हमारा मन सोवे नहीं, उल्लसित होवे इसके लिए सुख भेज देते हैं। हमारी सहिष्णुता बनी रहे, इसके लिए दुःख भी भेज देते हैं। उनके मन से अपना मन मिलाओ। उनकी बुद्धि से अपनी बुद्धि मिलाओ। इसके बाद क्या होगा? ‘अत ऊर्ध्वम्’-इसके बाद क्या? ‘मय्येव निवशिष्यसि’-यह नहीं कहते हैं कि घर में रहोगे, मेरे लोक में रहोगे। ‘मयि एव निवशिष्यसि’-कभी कचैरी बनाकर तुमको खावेंगे, कभी स्नो-पावडर बनाकर अपने शरीर में लगावेंगे। कभी अपने बाल में तेल की तरह लगावेंगे। कभी माल पूवे की तरह खा लेंगे। ‘मयि इव निवशिष्यसि’-दूर नहीं-राज्य में नहीं रखेंगे, प्रान्त में नहीं रखेंगे, नगर में नहीं रखेंगे, महल में नहीं रखेंगे। मुझमें रखेंगे। तुम्हारा निवास कहाँ? ‘मयि एव’- मुझमें मेरे सिवाय और किसी में नहीं-आओ तो सही-मेरे मन-से-मन मिलाकर देख लो। जैसे राखो वैसे ही रहौं। हमारे महात्मा लोग बोलते हैं-‘ज्यों ही ज्यों ही रखियत हौं त्यौं ही त्यौं रहियत हौं हे हरि! हरिदास का पद है। मन मिलाना क्या? हर काम में अपने प्यारे का हाथ-हर स्थिति में प्यारे का दर्शन-उसके दर्शन में उसके किये हुए काम में दुःख का स्थान कहाँ? जब मन, बुद्धि उसमें बस गयी-उसमें हम बस गये। ‘निवसिष्यसि मय्येव’- पहले भी मुझमें ही निवास करते हो लेकिन ये मन-बुद्धि ले जाकर दूर फेंक देते हैं। तुम मन-बुद्धि मुझमें लाकर रख दो तो देखोगे कि तुम पहले से ही मुझमें निवास कर रहे हो। पर यह कब मालूम पड़ेगा? मन के आधान के पश्चात् और बुद्धि के निवेशन के पश्चात् यह अनुभव होगा कि तुम मुझमें निवास कर रहे हो। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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