गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 8
‘पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः-प्रियः प्रियाया इव हे देव सोढुम् अर्हसि।’ तीन अपराध अर्जुन ने अपने पहले बताये थे। ‘अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात् प्रणयेन वापि।’ कुछ अपराध मैंने अज्ञान के कारण किये, कुछ प्रमाद से किये और कुछ प्रेम से भी किये। अज्ञान से जो प्रमाद किया, अपराध किया, उसके लिए ‘पितेव पुत्रस्य’। जो सबका पालन करने वाला है- सबका पिता-वह अपने पुत्र का अपराध क्षमा करता है। श्रीमद्भागवत में इसके लिए एक बहुत उत्तम भाव प्रकट किया हुआ है- उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे। ब्रह्माजी पिता, माता दोनों मान करके भगवान से क्षमा प्रार्थना करते हैं। क्योंकि ब्रह्माजी ने अपराध किया था और वहाँ भी अजानता महिमानं था। श्रीकृष्ण भगवान की महिमा को न जानकर उन्होंने बछड़ों की ओर ग्वालबालों की चोरी कर ली थी। वह अपराध था ही। कल के श्लोकों में पिता के रुप में भगवान का वर्णन किया और ये श्लोक जो मैं बोल रहा हूँ। इनमें माता के रुप में वर्णन है। कहते हैं- उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः। जब माता के गर्भ में बच्चा रहता है तो अपने पाँव उछालता है उससे माँ को चोट भी लगती है। लेकिन ‘किं कल्पते.....’ हे इन्द्रियातीत प्रभो-आपको पाँव लगेगा कहाँ से ‘अधोक्षजाग से।’ कहते हैं कि कोई आसमान पर थूके तो थूकने वाले पर ही गिरता है। सब जगत् के जो माता-पिता हैं उनके गर्भ में हैं-अनजान में अपना पाँव पीटते हैं, उछालते हैं-जानते तो हैं नहीं कि हम माँ के पेट में हैं और माँ को उससे चोट लगेगी। ‘अजानता महिमानमृ’। माता-पिता की महिमा का ज्ञान नहीं है। इसलिए माता अपने बच्चे के पाँव पीटने को कभी अपराध नहीं मानती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.14.12
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