गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 6
भूत का भय, प्रेत का भय, चोर का भय, शत्रु का भय, रोग का भय-सभी प्रकार के भयों को मिटाने के लिए इसका उपयोग होता है। किस काम में कैसे इसका उपयोग करना चाहिए? मन्त्रसार-सुधानिधि नामक संस्कृत ग्रन्थ में इसका प्रयोग बताया हुआ है कि कैसा भय उपस्थित होने पर इसका कैसे प्रयोग करना चाहिए। ‘स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च’। हे हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यति इति स्थाने’। ‘युक्ते द्वे सांप्रतं स्थाने’।[1] यह ‘स्थाने’ एक अव्यय शब्द है, हर विभक्ति में ज्यों-का-त्यों रहता है और इसका अर्थ होता है-‘युक्तं साम्प्रतं’। समय के अनुसार है और ‘युक्त’ माने सुसंगत है, युक्तियुक्त है। स्थाने सप्तमी का एक-वचन नहीं है-अव्यय है। अथवा ‘हे स्थाने हृषीकेश’-बिलकुल सच्ची बात है कृष्ण, क्या कि आप इन्द्रियों के स्वामी हो? हृषीकाणि इन्द्रियाणि तेषामीशः हृषीकेशः, इसके सम्बोधन में होता है- हृषीकेश-आप इन्द्रियों के स्वामी हैं। आपकी वजह से हमारे हाथ, पाँव, जीभ चलते हैं। योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां यदि भगवान हमारे भीतर बैठे हुए न हों, अन्तर्यामी न हों तो हमारी जीभ बोल भी नहीं सकती है। भगवान भीतर हैं, इसीलिए हमारे हाथ काम करते हैं। हमारे पाँव काम करते हैं। उस पावर-हाउस से हमारे हृदय के वल्ब का ऐसा कनेक्शन है कि उस कनेक्शन की वजह से ही हृदय में रोशनी होती है और वह सब इन्द्रियों के द्वारा बाहर निकलती हैं। और सब इन्द्रियाँ उसी से संचालित होती हैं। यह बहुत ही संगत है, इसके बिना किसी वल्ब में रोशनी कैसे आती है? अच्छा, तो यह सम्बन्ध है। यह उजागर कैसे होता है? इसके लिए कहते हैं-‘तव प्रकीर्त्या’-भगवान का कीर्तन किया जाय। प्रकृष्ट कीर्तन-भगवान का नाम लेकर ही जगत में आनन्द है। उसी से अनुराग, प्रेम की वृद्धि हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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