गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 4
जिसका पेट बड़ा हो, जिसके पेट में बहुत-सी बातें पच जायें, उगलने की जरूरत नहीं पड़े कि जो अनुभव हो सो उगलते जाओ। जिसको उगलने की जरूरत न पड़े। दुनिया भर की जानी हुई बातें जिसके पेट में पच जायँ-ओहो! आप ऐसे महात्मा सारी दुनिया को पेट में लिये बैठे हैं-बाबा! आपसे बड़ा और कोई नहीं होगा। आपके इस बड़प्पन को देखकर काँप रही है। अमी हि त्वां सुरसंघा विशन्ति दो तरह का पाठ मिलता है। एक ‘त्वां’ और एक ‘त्वा’। आजकल जिन ग्रन्थों की टीका-टिप्पणी संस्कृत में बहुत अधिक मिलती है, उनमें गीता ही प्रधान है। कोई 900 के लगभग गीता पर टीकाएँ लिखी गयी है। इस समय जो उपलब्ध है उनकी संख्या 900 के लगभग है और जो नहीं है उनकी बात तो छोड़ देते हैं। प्रचुर प्रचारित यह ग्रन्थ है। इसके अर्थ को देखने लगते हैं और पाठ-भेद को भी कहीं-कहीं देखते हैं तो आश्चर्य होता है। अमो हि त्वा सुरसंघा विशन्ति। अमो तु आ असुर संघा विशन्ति-अमी त्वा सुरसंघा विशन्ति; तथैव अमी तु आ आ विशन्ति। आ को यहाँ से उठाकर विशन्ति के पहले जोड़ देंगे। आ-विशन्ति। ये जितने देवता-दानव हैं, ये सब आप में प्रवेश कर रहे हैं। चाहे कोई देवता का व्यवहार करे चाहे दैत्य का। सब परमात्मा के अन्दर ही है। देवता से राग मत करो दैत्य से द्वेष मत करो। संसार में देवता और दैत्य भगवान के शरीर में दिखायी पड़ते हैं। एक छोटी-सी कथा आपको सुनाता हूँ। श्री रामानुजाचार्य जी महाराज भगवान के श्री विग्रह पर अपना हाथ फिरा रहे थे। भक्त लोग मूर्ति को प्रत्यक्ष भगवान मानते हैं। असल में जिनके यहाँ जड़ और चेतन दो तत्त्व हैं, उनके लिए भगवान की मूर्ति परमात्मा नहीं होती, भगवान नहीं होती। पर जिनके यहाँ तत्त्व एक ही है उनके लिए मूर्ति भी भगवान होती है। यह दर्शन है, यह सिद्धान्त है। एक जड़ है, एक चेतन है। दो तत्त्व हैं। तो बोले-मूर्ति तो जड़ है, चेतन भगवान तो कोई और हैं। लेकिन जिनके लिए चेतन एक ही तत्त्व है उनके लिए मूर्ति भी भगवान-स्वरूप हैं। और असल में चेतन अपनी आत्मा के सिवाय दूसरा कोई नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.21
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