गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 3
अर्जुन ने कहा है देव, क्या खेल है आपका! आपके शरीर में मैं देवताओं को देख रहा हूँ। सब इन्द्रादि जितने देवता हैं, सब हैं। अपने शरीर में भी इन्द्रादि देवताओं की अभिव्यक्ति होती है। हाथ में इन्द्र की, पाँव में विष्णु की-गति के देवता विष्णु हैं। कर्म के देवता इन्द्र हैं। बोलने वाली जीभ के देवता अग्नि हैं और स्वाद लेने वाली जीभ के देवता वरुण हैं। आँखों में सूर्य हैं। कानों में दिक् देवता है। त्वचा में वायु है। नासिका में अश्विनी कुमार है। जैसे पिण्ड में होता है, ठीक ऐसे ही ब्रह्माण्ड में होता है। लेकिन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ब्रह्माण्ड रूप नहीं दिखाया। ब्रह्माण्ड तो पंचभूतों में बनते हैं और कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड होते हैं। आकाश में न जाने कितने ब्रह्माण्ड हैं। सब में हवा चलती है। सब में गरमी रहती है। सब में पानी होता है। सबमें धरती होती है। पंचभूतों के बने हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड होते हैं। अर्जुन को विश्वात्मक विराट शरीर भगवान ने दिखा दिया अपनी देह में। देह शब्द का अर्थ संस्कृत में होता है ‘जो बहुत वस्तुओं से बना हो।’ ‘दिह् उपचये’। राशि-शशि पदार्थ हैं-देह के-देह-यह बात आपको मालूम ही होगी कि जब बहुत-से पार्ट जोड़कर कोई मशीन बनायी जाती है तब वह मशीन मशीन के लिए नहीं होती। मशीन किसी दूसरे के लिए होती है। बैलगाड़ी बनाओ, चाहे मोटर बनाओ, चाहे राकेट बनाओ-जब उसके पुरजे बहुत-से हैं और सब जोड़े गये हैं, तो वह चीज स्वयं के लिए नहीं होती है। किसी और के लिए होती है। अर्जुन के लिए भगवान् ने अपना विराट् देह प्रकट किया। उसमें सम्पूर्ण भूत विशेष अर्थात जितने भूत विशेष हैं-उनका संघ है। फिर देखा कि ब्रह्मा जी भी उसमें हैं। ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थम् ऋषींश्च सर्वान्-उरगांश्च दिव्यान्। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.15-16
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