गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-1 : अध्याय 1-4
प्रवचन : 8
अच्छा; अब आगें बढ़ें। अर्जुन ने जब रहस्य की बात सुनी तब भगवान से एक बात पूछ ली। वह बात अर्जुन को मालूम नहीं थी, ऐसा तो नहीं लगता, क्योंकि आगे चलकर उन्होंने कहा है- असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे।[1] असित, देवल, महर्षि नारद और व्यास इन सबने मुझको यह बताया है कि श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्मम हैं। आप स्वयं भी यही कह रहे हैं। अतः यह बताइये कि सूर्य बहुत पुराने है और आप बाद में पैदा हुए हैं। मनु भी आपसे पूर्व के हैं उनके वंशज इक्ष्वाकु का काल भी दूसरा है फिर आपने अपने पूर्व के लोगों को उपदेश कैसे किया? यह शंका अर्जुन ने इसलिए प्रकट की कि लोगों को श्रीकृष्ण के स्वरूप का भान हो जाये। इसका उत्तर श्रीकृष्ण ने यह दिया कि योग अव्यय है और मैं भी अव्यय हूँ। गीता में अव्यय शब्द का प्रयोग जीव के लिए भी है, जगत् के लिए भी परमेश्वर भी अव्यय है और उसकी प्राप्ति का उपाय भी। इस प्रकार अव्यय का प्रयोग प्रायः सबके लिए है। जो ईश्वर सर्वथा निराकार होता है और जिसमें आकार ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती, वह तो असमर्थ है-सामर्थ्य -हीन है। हम नैनीताल में एक राजा के यहाँ ठहरे हुए थे। एक दिन वे दाढ़ी मूँछ लगाकर आये और हमको बताया कि हमने फैन्सी ड्रेस शो के लिए यह वेश धारण किया है। वे थे राजा और उन्होंने साधु का वेश बना लिया था। हमारा कमण्डलु भी ले गये थे। पहचान में नहीं आते थे। सर्वथा साधु लगते थे। एक लौकिक राजा साधु का वेश बना सकता है और साक्षात परमेश्वर मनुष्य का वेश नहीं बना सकता? यह मान्यता तो ईश्वर का तिरस्कार है। वास्तव में सभी तत्त्व यहाँ तक कि पृथिवी भी निराकार है। क्योंकि पृथिवी का कारण है परमाणु और वह साकार नहीं। परमाणु से कार्यरूप पृथिवी बन जाती है, किन्तु वे स्वयं निराकार होते हैं, निष्क्रिय होते हैं, अनगढ़ होते हैं। परमाणुओं में आकार-विकार नहीं होता, परन्तु वे मिलकर संघात बनाते हैं, प्रसरण बनाते हैं और उनसे सृष्टि बनती है। एक स्थूल उदाहरण लीजिये। आपके हाथ में जो शीशा है उसका आकार क्या है? वह कंगन है, कुण्डल है, या सिल्ली है? सोने का अवतार है सिल्ली, सोने का अवतार है कंगन या कुण्डल। उसका जो गलाया हुआ रूप है वह भी उसका असली स्वरूप नहीं। सोने का अपना कोई रूप नहीं। वह तत्त्व रूप से निराकार है। उससे कंगन, कुण्डल, सिल्ली या द्रव कुछ भी बना लीजिये, ये सब रूप-स्वर्ण के अवतार ही होते हैं। जब कोई भी मूल वस्तु अवतार लेती है तभी वह हमारी दृष्टि का विषय होती है। जो परमेश्वर केवल निराकार है वह हमारे हृदय में कैसे आ सकता है? हमारा छोटा-सा हृदय किसी बड़े परमेश्वर को अपने भीतर ले नहीं सकता क्योंकि वह असमर्थ है, अक्षम है। जो अक्षम नहीं है, उसे संस्कृत में क्षम कहते हैं- सक्षम नहीं, जैसा कि हिन्दी में कहा जाता है। क्षम का अर्थ है- करने में समर्थ। सक्षम का अर्थ है- क्षमा के साथ- क्षमायुक्त। यह एक बात मैंने ऐसे ही आपको सुना दी। अब, हमारे जो ईश्वर हैं वे संसार द्वारा स्वीकार किये गये अन्य ईश्वरों से कुछ विलक्षण हैं। हमारे वैदिक ईश्वर को समझना थोड़ा कठिन है, क्योंकि वे इस जगत् के अभिन्न निमित्तोपादान कारण है। दुनिया को बनाया भी उन्होंने ही और दुनिया के रूप में बने भी वही। वही सबको बनाने वाले हैं, वही सब हैं, और वही सबमें है। वह प्राज्ञ के रूप में सर्वकारण हैं, ईश्वर के रूप में सबका बीज है, हिरण्यगर्भ के रूप में सबका अंकुर है और विराट् के रूप में वृक्ष है। यह परमेश्वर ही सम्पूर्ण विश्व-सृष्टि के रूप में प्रकट होता है। अन्यथा भगवान का सर्वत्र और सब रूपों में दर्शन बिलकुल झूठी कल्पना हो जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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