गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 1
अर्जुन ने जब कहा कि ‘शिष्यस्तेऽहम्’-तब उसको पहले गुरुत्व दिखाया- अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्[1] डाँट दिया, फटकार दिया कि हमको गुरु बनाकर, हमारे शिष्य होकर तुम शोकग्रस्त हो! हमारे होकर दुःखी रहोंगे तो हमारी बदनामी होगी। अपने गुरु की बदनामी न हो, अपने इष्ट की बदनामी न तो-अपने पिता-माता को बदनामी न हो, इसका ख्याल तो रखना ही चाहिए। मेरे होकर तुम शोक करोगे तो लोग मेरा बनना ही पसन्द नहीं करेंगे। भक्ति सम्प्रदाय का ही लोप हो जायेगा। मेरा अपना हो और दुःखी हो यह दोनों एक साथ नहीं हो सकता। अर्जुन कहता है तुमने मुझ पर अनुग्रह किया, मुझे अपना बना लिया। अनुग्रह किस रूप में किया? तुमने कुछ वचन कहे-कैसे वचन कहे? ‘परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम्’-ये वचन गुह्य हैं-गुह्य माने गोपनीय है। जैसे मनुष्य अपने शरीर के गुह्य स्थान को वस्त्रों के द्वारा गूहन करके छिपाकर, आवृत करके रखता है, ऐसे ही यह वचन जो तुमने कहे हैं-परमं गुह्यं हैं-छिपाने योग्य हैं। भगवद-गीता में भगवान ने-‘गुह्य’ शब्द का प्रयोग स्वयं भी बहुत किया है। ‘गुह्यात् गुह्यतरम्ः’ ‘गुह्यतमम्, परमं गुह्यतमम्’ में गुह्यात् गुह्यतर आ जाता है। संस्कृत भाषा में परम शब्द का अर्थ ऐसा होगा कि ‘परा-मा-यस्मिन्-तत् परमा’ जिसकी शोभा सबसे बड़ी हो, परा-जिसमें सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी का निवास हो, ‘तत्र श्रीर्विजयो भूतिः’ और पराका प्रमा ‘यस्मिन्’ जिसमें परम सच्चा ज्ञान, यथार्थ ज्ञान, तत्त्वज्ञान भरा हुआ हो, ऐसा परम गुह्य वचन। इसका नाम क्या दें? ‘अध्यात्मसंज्ञितम्’ इसका नाम है ‘अध्यात्म’। अच्छा भाई, मैंने तो तुमको बहुत गुह्य बात बतायी-दोनों आपस में बातचीत करते हैं- कृष्ण ने कहा कि अर्जुन, मैंने तो तुमको बहुत गुह्य बात बतायी। तुम समझ भी गये कि मैं तुम्हारे ऊपर अनुग्रह भी कर रहा हूँ- इसका कुछ नतीजा निकला कि नहीं? कुछ फल हुआ कि नहीं। जो श्रेष्ठ वचन होते हैं वे कभी व्यर्थ नहीं जाते। व्यर्थ बोलना ही नहीं चाहिए। अभिप्राययुक्त वचन ही बोलना चाहिए। वाणी का अपव्यय नहीं होना चाहिए। अच्छा भाई, हमने तो बोल दिया-इसका कुछ परिणाम निकला? कुछ नतीजा हुआ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.11
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