गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 1
इसमें स्वर है, ताल है, व्यवस्था है, मर्यादा है। संगीत अमर्यादित होने पर संगीत नहीं रहता। संगीत में स्वर, ताल, लय, विराम, मूर्च्छना, जातियाँ सब व्यवस्थित होनी चाहिए। गीता का ज्ञान समग्ररूप से व्यवस्थित है, मधुर है, गम्भीर है और स्वतः सिद्ध ज्ञान है। परिस्थितियाँ बदलती है, समय बदलता है, पर नित्य-संगीत हमेशा ही उपयोगी होता है। जो अनुपयोगी होता है, उसे लोग छोड़ जाते हैं। काशी के प्रकाण्ड पण्डित महामहोपाध्याय श्रीशिवकुमार शास्त्री ने एक प्रसंग में लिखा है-यह काम लोगों ने क्यों छोड़ दिया? क्योंकि यह अनुपयोगी था। जिस वस्तु का उपयोग नहीं रहता वह छूट जाती है। परन्तु यह गीता का योग सर्वदा उपयोग करने के लिए है। जहाँ जीवन है वहाँ गीता का उपयोग है। जीवन और गीता का उपयोग एक साथ जुड़ा हुआ है। यह मित्र-मित्र का संवाद है। अर्जुन के मन में उदासी आयी। विवाद हुआ। उसने कहा-‘मैं शस्त्र-शस्त्र फेंक कर भीख माँगकर खाऊँगा।’ श्रीकृष्ण घोड़े की बागडोर तो संभाल रखी ही, अर्जुन के कन्धे पर हाथ रखा और कहा-मित्र, जब दो मित्र इकट्ठे हो तब किसी निश्चय की घोषणा अकेले नहीं करनी चाहिए। सलाह तो कर लेनी चाहिए। अर्जुन ने कहा-मेरी बुद्धि काम नहीं करती। तुम सलाह दो मैं मानूँगा। ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।’[1] श्री कृष्ण ने अर्जुन को अनेक प्रकार से समझाया। अन्त में कह दिया-
सम्पूर्ण जगत को विस्तब्ध करके अपनी मुठ्ठी में रखा है। धरती से मैं कहता हूँ अपनी जगह पर स्थिर रहो। हटो मत। दृढ़ रहो। हमारी आज्ञा से पृथ्वी दृढ़ है। जल रसीला प्रवाहित रहता है। तेज तेजस्वी रहता है। वायु प्राण देता है। आकाश अवकाश देता है। सम्पूर्ण जगत मेरे एकांश से स्तब्ध, स्तम्भित अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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