गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 10
भागवत के मूल में यह बात कही कि भगवान अपना अन्त नहीं जानता। तय यह हुआ कि भगवान अज्ञानी हुआ। नहीं, अज्ञानी नहीं हुआ। यदि अन्त होता और ईश्वर न जानता तो अज्ञानी होता। जब अन्त है ही नहीं तो ईश्वर कैसे जाने? अन्त को न जानना ही ज्ञान है। ईश्वर क्या नहीं कर सकता, यह हम बतावें? ईश्वर दूसरा ईश्वर नहीं बना सकता। यदि ईश्वर दूसरा ईश्वर बनावेगा तो बनावटी ईश्वर पहले तो था ही नहीं। जो पहले ईश्वर था वह अभी ईश्वर है, आगे ईश्वर रहेगा और वह बीच में बनाया गया होगा। नित्य ईश्वर अपने को मार नहीं सकता-ईश्वर कहे कि-हमारी मौत हो जावे, नहीं हो सकती। ईश्वर के किये भी नहीं हो सकती। यह जो ईश्वर का विस्तार है, इस विस्तार को स्वयं ईश्वर भी नहीं जानता। अब हम आपको एक-एक नाम लेकर बतावें, तो जो नाम लेकर बताने में स्वयं ईश्वर ही हार गया है, उनके नामों की गिनती हम कैसे करेंगे? नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप। यह तो नाम गिना दिया। केवल उद्देश्य मात्र। एक गणना कर दी। दिग्दर्शन करा दिया। यह विभूति है, यह विभूति है। जब सब विभूति है तो उसकी गणना कहाँ करें? ऐसा समझो कि एक लड़की का पिता लड़का देखने गया। पहले उसने देखा कि उसके पास धन-सम्पदा कितनी है? यह विभूति हो गयी। यह दसवें अध्याय में हैं और फिर ग्यारहवें अध्याय में देखा उसने-उसकी विशालता-उसका विस्तार कितना है? उसका व्यक्तितव कितना बड़ा है? ये आसपास से जान लिया। फिर तो महाराज, उससे प्रेम हो गया। यह बारहवाँ अध्याय है। भक्ति हो गयी। वह बड़ा वैभवशाली है-बड़ा विराट है, यह तो भक्ति करने योग्य है। फिर तेरहवें अध्याय में उससे पहचान हो गयी। उसका ज्ञान हो गया। और चौदहवें अध्याय में उसका उसके सिवाय जो कुछ था उसको छोड़ दिया। गुणत्रय-विभाग हो गया। पन्द्रहवें अध्याय में पुरुषोत्तम-योग हो गया। उससे विवाह हो गया। पन्द्रहवें अध्याय में बेटी बिलकुल ब्याह दी। यह गीता का क्रम देखो। दसवें अध्याय से लेकर पन्द्रहवें अध्याय तक! वैसे सारा ही क्रम रहस्यपूर्ण होता है लेकिन अभी उस पर कहने का समय नहीं है। यह आपने वैभव देखा। अब कोई तो पड़ोसी से पूछा गया, कोई दलाल से पूछ गया। अर्जुन ने कहा हम पड़ोसी या दलाल की बात नहीं मानते हैं। यदि कोई झूठा वैभव बताता हो तो उसकी बात पर विश्वास न करके, पड़ोसी से पता लगाया जाता है। अब तुम तो स्वयं यहाँ मौजूद हो। अपने मुँह से ही बता दो कि तुम्हारे पास क्या-क्या वैभव है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 10.40
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