गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 8
प्राण हमारा ऊपर के रास्ते से बाहर जाता है, लौटता है, और अपान नीचे के रास्ते से निकलता है। इन दोनों को अलग करके दोनों के मध्य में सन्धि जो है-वहाँ परमात्मा है। कई लोग परमात्मा का ध्यान प्राण और अपान की सन्धि में करते हैं। बहुत छोटा-सा, बहुत नन्हा-सा वह सन्धि-स्थल है। प्राण की गति निराली और अपान की गति निराली और दोनों को अलग-अलग करने के लिए बीच में बैठ गये वामन भगवान। नहीं तो मनुष्य जिन्दा ही नहीं रहेगा। प्राण यदि अपान में मिल जाय और अपान प्राण में मिल जाय तो मनुष्य जीवित नहीं रह सकता। यह जो हमारा जीवन चल रहा है, वह हमारे हृदय में वामन भगवान बैठे हैं, इसीलिए चल रहा है। हमारे ऊपर प्रत्यक्ष करुणा है भगवान की, नहीं तो साँस बाहर निकलकर फिर लौट आये यह लोगों को मालूम नहीं पड़ता-पर आश्चर्य है। साँस बाहर जाती है, और फिर लौट आती है। जब साँस शरीर से बाहर निकल गयी तो क्या विश्वास है कि वह लौटकर आवे कि न आवे। लेकिन भगवान भीतर बैठे हुए हैं। वही साँस को बाहर भेजते हैं और वही साँस को भीतर खींचते हैं, जिससे हम लोग जिन्दा रहते हैं। वैसे भगवान प्रत्यक्ष दिखायी भी पड़ते। ऐसा नहीं है कि प्रत्यक्ष न दीखते हों। एक वामन तो ये हुए जो आपकी शरीर में रहकर प्राण, अपान का विभाग कर रहे हैं-जीवन दे रहे हैं। ये भी अदिति के ही पुत्र हैं। अब दूसरे वामन का ध्यान करो। पक्षपाती भगवान। हम भगवान को पक्षपाती बोलते हैं। आर्य समाजियों के भगवान न्यायकारी हैं। ब्रह्मसमाजियों के भगवान भी न्यायकारी होते हैं और जो इसाई, मुसलमान और हमारे सनातनधर्मी लोग हैं, इनके भगवान सर्वदा से भक्तों का पक्ष करते हैं। यद्यपि इसाई, मुसलमान के भगवान निराकार हैं। पर वे मुहम्मद साहब के सिवाय तथा ईसा के सिवाय और किसी की सुनते ही नहीं हैं। वे जिसकी सिफारिश कर दें, मान लेते हैं। तो वे निराकार होने पर भी पक्षपाती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कठोप. 2.2.3
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