गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 6
सभी प्रमाणिक आचार्यों ने गीता को प्रमाण माना है। शांकर-भाष्य है गीता पर, रामानुज का श्रीभाष्य है गीता पर, निम्बार्काचार्य जी तभा बल्लभाचार्यजी की टीका भी है। मध्वाचार्य का आनन्द भाष्य है। गीता पर सभी आचार्य शैव-शाक्त, गाणपत्य, सौर, वैष्णव-सभी गीता का आदर करते हैं। गीता को कहानी की तरह नहीं–मन एकाग्र करके थोड़ी गम्भीरता से इसका श्रवण करना चाहिए। दुर्गापाठ है; वह केवल पाठ करने के लिए है, श्रवण के लिए नहीं। और उपनिषदें श्रवण करने के लिए हैं, पाठ करने के लिए नहीं हैं और यह गीता जो है -यह श्रवण करने के लिए भी है और पाठ करने के लिए भी है। पाठ करने के से पुण्य होता है और श्रवण करन से ज्ञान होता है। कान ज्ञानेन्द्रिय है और जीभ कर्मेन्द्रिय है। जिह्वा से कर्म होता है और कान से ज्ञान होता है। गीता ज्ञान और कर्म दोनों को मिलाकर कल्याण करने वाली है। अद्भुत लीला है भगवान की- हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मूविभूतयः।[1] आप देखें- अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च। [2] ये जितने भूत हैं, माने जो कुछ पैदा हुआ है,‘भवन्ति इति भूतानि’ जो हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे-उनका नाम भूत है। जो पहले हुए और गिर गये-अब हो रहे हैं और मिटते जा रहे हैं और आगे होंगे और मिट जायॅंगे, उनका नाम है-‘भवन्ति इति भूतानि’। केवल ‘भवन्ति’ कह देने से काम नहीं चलता है, उसको सोचना पड़ता है। ‘अस्ति’ और ‘भवति’ में क्या अन्तर है? यद्यपि धातु का अर्थ एक ही है और फिर ‘अस्ति’ और ‘भवति’ में अन्तर होता है। यह कहते हैं कि जो कुछ हुआ है, और होगा-उसका आदि मैं-मध्य मैं-अन्त मैं, मानो सभी पदार्थों के आदि में, मध्य में, अन्त में, हमारा चिन्तन करो- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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