गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 6
चिन्तन कहाँ करना? भगवान का दर्शन कहाँ करना? कैसे करना? ‘कथं विद्यासहं योगिन्’। बोले-‘सर्वभूताशयस्थितः’। ‘सर्वेषां भूतानां आशयेषु परिवर्तमानेषु स्थितः अचलः आत्मा अहम्’। सम्पूर्ण प्राणियों की जो अन्तःकरण-वृत्ति है, आशय है, चित्तवृत्ति है, उसमें परिवर्तन होता रहता है। ऐसा किसी का मन नहीं होता, जो बदलता न हो। ‘भूताशयेषु परिवर्तमानेषु’। मन बदलता रहता है लेकिन मैं एक ही रहता है। बचपन का मन बदल गया। जवानी का मन बदल गया। बुढ़ापे का मन बदल गया। कितनी स्मृतियाँ आयीं, कितने संस्कार आये। इसमें बहुत बखेड़ा है। भगवान ने तो अपना ऑपरेशन ही कर दिया। आशय को निकालकर फेंक दिया। जैसे आजकल स्त्रियाँ गर्भाशय निकाल देती है, वैसे भगवान ने अपने अन्दर आशय रखा ही नहीं-अद्भुत है। जो लोग भगवान के बारे में कम सोचते-विचारते हैं-उनको शायद यह बात मालूम नहीं होगा-भगवान को किसी की स्मृति नहीं होती। स्मृति नामक वस्तु भगवान में है ही नहीं। लोग तो नाराज हो जायेंगे। भगवान को हमारी याद नहीं आयेगी? अरे भाई, याद उसको आती है जिसको वस्तु परोक्ष होती है। कल की देखी आज याद आयेगी। वहाँ देखी यहाँ आयेगी। वह देखी यह याद आयेगी। अब भगवान के लिए तो देश-काल का कोई भेद नहीं है। इसलिए उनको परोक्ष नहीं होता। और परोक्ष नहीं होता तो अपरोक्ष ही रहता है। तुम्हारे लिए जो भूत, वर्तमान और भविष्य का भेद है, वह तो भगवान में है नहीं। जो सब देख रहा है, उसको स्मरण करने की क्या आवश्यकता? इसी से क्लेश, कर्मविपाक और आशय ये तीनों भगवान में नहीं होते। यह बात योगदर्शन के प्रारम्भी में ही कही हुई है- ‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः’।[1] तो भगवान में तो अपने में आशय रखा नहीं और जीवों के साथ लग गया यह आशय। देखो जो बड़े लोग होते हैं वे अपने न पास नोट रखते हैं, न चाभी रखते हैं। सब मुनीम के पास होता है। भगवान ने अपने खजाने की चाभी अपने पास नहीं रखी। वह तो महात्माओं को दे दी। जब जरूरत हो तब खोल लेना, देख लेना। रजिस्टर भी महात्माओं के पास ही रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.24
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