गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 5
वहाँ उस प्रवृत्ति के क्षेत्र में, धर्म क्षेत्र में श्रीकृष्ण अर्जुन को अपनी दिव्य विभूति बता रहे हैं। यहाँ यह नहीं है कि ऐसे प्राण-त्याग करो तो मुक्त हो जाओगे। जहाँ ऐसे हैं-इस प्रकार लड़ो तो मुक्त हो जाओगे। लड़कर मुक्ति पाने के लिए है गीता और मर के मुक्ति पाने के लिए है भागवत। दोनों का क्षेत्र पृथक-पृथक है। अधिकारी श्रोता भी पृथक हैं, वक्ता भी पृथक है। हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः। आओ खुशी की बात है कि हमारी विभूति जानना चाहते हो। आश्चर्य की बात है कि ऐसे कोलाहल में भी तुम्हारी ऐसी जिज्ञासा है। और भगवान ने बताया- अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।[2] जब अँगूठे और तर्जनी को जोड़ देते हैं तो गुडा नाम की मुद्रा बनती है। ऐसे हैं केश जिसके अर्थात घुँघराले बालों वाले। यह प्रेम का सम्बोधन हो गया रूप की प्रशंसा, बालों की प्रशंसा तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं हुई उसका दूसरा अर्थ करते हैं-‘गुडाका-निद्रा तस्य ईशाः’। गुडा का माने नींद। नींद पर जिसने विजय प्राप्त करना। निद्रा तो उपलक्षण मात्र है। किसी बात पर विचार करना हो तो प्रमाण पूर्वक विचार करने वाले तुम हो। तुममें प्रमाद नहीं है। विपर्यय कभी तुम को होता नहीं। विकल्प पर भी तुमने विजय प्राप्त कर ली है, दुविधा नहीं है। स्मृति तुम्हारी ठीक है, और जब सोना चाहो तब सो सकते हो, जब जागना चाहो तब जाग सकते हो। अपनी अवस्थाएँ भी मनुष्य के अधीन होनी चाहिए। यह नहीं कि काम करना है और नींद आगयी। सोना है और नींद आवे ही नहीं। ऐसा नियन्त्रण चाहिए अपने शरीर की अवस्थाओं पर भी कि मनुष्य उनके पराधीन न हो। इसी से योग में क्लिष्ट और अक्लिष्ट-दो प्रकार की वृत्तियाँ हैं। एक तो क्लेश देनेवाली अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश। ये पाँचों वृत्तियाँ क्लेश देने वाली हैं। हमारी नासमझी हमको दुःख देती है और अभिनिवेश-जब हम किसी वस्तु में इतने तन्मय हो जाते हैं कि अपने आपको भूल जाते हैं-वह हमको दुःख देता है। दुःख देने वाला दूसरा कोई नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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